मेरी कृतियाँ

Monday, 29 February 2016

“पोल खलों की खोलेंगे” [ रमेशराज की तेवरियाँ ]

“पोल खलों की खोलेंगे” [ रमेशराज की तेवरियाँ ]
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रमेशराज की तेवरी ....1.
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उस दिन थोथे आदर्शों की खुल जानी है सारी पोल
जब तेरी नीयत तोलेंगी साथी तेरी कविताएँ। 

जिसमें मेरी रही आस्था मुझको क्या था ये मालूम
उस समाज में विष घोलेंगी साथी तेरी कविताएँ। 

जब तेरे बीबी-बच्चों को देखें मित्र भूख से त्रस्त
कोने में जाकर रो लेंगी साथी तेरी कविताएँ।

तेरे सभी मुखौटे उचलें, तब दीखेगा तेरा रूप
तुझको जब खत-सा खोलेंगी साथी तेरी कविताएँ। 

तेरे छल के कारण ऐसा आज नहीं तो कल हो बंधु
तुझसे ही आहत हो लेंगी साथी तेरी कविताएँ। 


रमेशराज की तेवरी ....2.
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जिसने सबको ज़हर पिलाया हँस-हँस कर
उसको ही सुकरात बताया, ये क्या मैंने कर डाला!

धोखेबाजों की बस्ती में बैठा मैं
अपना स्तर रोज गिराया, ये क्या मैंने कर डाला!

सोचों में चंगेजो-नादिर हैं जिसके
उस क़ातिल को रोज बचाया, ये क्या मैंने कर डाला!

वो कायर जो पीठ दिखा रण से भागे
उनको पौरुषवान् बताया, ये क्या मैंने कर डाला!

नैतिकता का लगा मुखौटा रोज डसे
उस विषधर का साथ निभाया, ये क्या मैंने कर डाला!

आदर्शों की बस्ती ये तममय करता
मैं किस सूरज को ले आया, ये क्या मैंने कर डाला!

छंदों-बिम्बों कविता का जो हत्यारा
उसको अपने पास बिठाया, ये क्या मैंने कर डाला!


रमेशराज की तेवरी ....3.
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तुझको चाहे बुरा लगे पर आज हमारा यही बयान
तुमने सच के-आदर्शों के नोचे हैं पर बोलेंगे। 

हम देखेंगे शूली ऊपर लटकेंगे जब सबके प्रान
किसमें साहस मुसकाता है, किस-कस में डर बोलेंगे। 

मेरे हर विरोध का जब तुम पहचानोगे सत्य-विधान
मेरी कविता में कबिरा के ढाई आखर बोलेंगे। 

जनता के अब महाभोज में गिद्ध जुटे हैं सीना तान
इन गिद्धों के सर पर आखिर कल को पत्थर बोलेंगे।


रमेशराज की तेवरी ....4.
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अपने जी का भेद खोल अँगरेजी में
मैकाले के काले सुत तू खूब बोल अँगरेजी में।

ये प्रभाव की बात नहीं, इम्प्रैशन है
अपनी पर्सनैलिटी का तू बना घोल अँगरेजी में।

कोयल से कउआ बनने में हर्ज नहीं
सात सुरों को काँव-काँव कर तू टटोल अँगरेजी में।

भारतीयता एक गँवारू दर्शन है
बनकर प्यारे सिविल इण्डियन नित्य डोल अँगरेजी में।

होली, ईद दीवाली मुर्दा परम्परा
वैलनटाइन डे से फैला मेलजोल अँगरेजी में।

अँगेजों का शासन ला, चल जोर लगा
तेरी शान इसी में है तू कर किलोल अँगरेजी में।


रमेशराज की तेवरी ....5.
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मेरी कविताओं में केवल कविता का है यही सवाल
जिसको लोगों ने कवि माना, वह दलाल है कविता का। 

कवि की काली करतूतों से जैसे आहत यह संसार
कोई माने या ना माने यही हाल है कविता का। 

इसमें शब्दों के मुर्दों को ऐ कवि तू अब और न डाल
एक यही पावन जल वाला स्वच्छ ताल है कविता का। 

कर बैठा उनसे समझौता जो हैं हिंसक-आदमखोर
अब छरने को तुझ पै केवल विवश गाल है कविता का। 

बैठे हैं हर ओर मसखरे, भाटों से है शोभित मंच
लय-तुक-छन्दबद्धता सब कुछ, बस अकाल है कविता का। 


रमेशराज की तेवरी ....6.
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आत्मदाह नन्हे-मुन्नों से करा रही
और सियासत पहुँचेगी अब किस गुनाह की सीमा तक।

भोली जनता कब समझेगी गिद्धों को
जो कोयल से कूक रहे हैं कत्लगाह की सीमा पर।

झूठे लगते सद्भावों के संवदेन
सत्ता का मद जब होता है सिर्फ डाह की सीमा पर।

इसे सिसकियाँ देने वाले होश न खो
अभी वक़्त है, अभी मुल्क है बस कराह की सीमा पर।

वोट हमें दो, रोटी की चिन्ता छोड़ो
सारे नेता बोल रहे हैं इस सलाह की सीमा पर।


रमेशराज की तेवरी ....7.
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बौनापन जिनका जगजाहिर, कहें-‘हमें आदमकद मान
सुरसा जैसे रूप मंच पर बना रहे हैं, बौने जो। 

जिनकी साँस-साँस से चिपकी कायरता का देखा रूप
कविताओं में अपना पौरुष दिखा रहे हैं, बौने जो। 

सुविधाओं के आसमान को छूने का मन में अरमान
स्वारथ की अनगिनत सीढि़याँ लगा रहे हैं, बौने जो। 

मंच-मंच से असुर-खलों को इधर रहे जो कवि दुत्कार
नेपथ्यों में उधर झुनझुने बजा रहे हैं, बौने जो। 

हमने दिये विशेषण जिनको भव्य उच्चताओं के यार
हमको ही गहरी खाई में गिरा रहे हैं, बौने जो। 


रमेशराज की तेवरी ....8.
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प्रीति-प्यार के सम्बन्धों का खेल अजब
सारे साथी साथ हमारे अमरबेल बनकर जीये।

दोष हमारा इतना हम भोले पक्षी
साधे हुए निशाने हम पर वे गुलेल बनकर जीये।

कोमल मन को कुछ सुख देते फूलों-सा
जीवन-भर एहसास आपके बस पतेल बनकर जीये।

घर के भीतर अहंकार का रोग लगा
नयी सभ्यता में लघुभ्राता भी बड़ेल बनकर जीये।

साथ सुखों का ऐसा पाया जीवन-भर
सुख अपने सँग एक हथकड़ी या नकेल बनकर जीये।


रमेशराज की तेवरी ....9.
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देते आज दुहाई सच की सारे के सारे मक्कार
कहते फिरें सभ्य अपने को हिंसक और बनैले लोग।

लाना था आटा थोड़ा-सा, थोड़ी सब्जी आनी यार
पी-पी दारू लौटे रहे हैं ले-ले खाली थैले लोग। 

भाव मित्राता का अंकित कर, चेहरे पर मुस्कान सँवार
केवल थोथा प्यार जताएँ अन्दर-अन्दर मैले लोग। 

आये थे ये प्यास बुझाने सूखे अधरों की इस बार
लेकिन स्वच्छ ताल के जल पर काई जैसे फैले लोग।  

क्या विरोध कर पायेंगे ये और बढ़ेंगे अत्याचार
कविता को ही खा जायेंगे तर्कहीन गुस्सैले लोग। 



रमेशराज की तेवरी ....10.
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थे डकैत सच को सब चोर बताने वाले
किसी तरह तो नैतिक होते नैतिक प्रश्न उठाने वाले।

जिन हाथों ने घायल अपना तन सहलाया
वही कहीं तो हाथ नहीं थे कल बन्दूक चलाने वाले?

कैसा उत्सव, कैसी लोगों हरित क्रान्ति है!
वही आरियाँ आज लिये हैं जो थे पेड़ लगाने वाले।

सिर्फ शिखण्डी व्यक्तित्वों के संग लड़े हम
युद्ध-भूमि पर कहाँ नहीं थे कायर पीठ दिखाने वाले।

बात धर्म की लेकिन उसमें अधर्म बोले
विष से भरे हुए लौटे हैं अमृत-घट तक जाने वाले।


रमेशराज की तेवरी ....11.
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स्वारथ में नैतिकता धारे, पाले अहंकार का रोग
आचरणों का पक्ष नकारे बस्ती-बस्ती लोग मिले। 

मन के भीतर भरी गन्दगी, सभी घिनौने इनके सोच
पर मुख पर मुस्कान सँवारे बस्ती-बस्ती लोग मिले। 

नगर-नगर में कह कर इनको फूल-उसूल रहे हैं फैंक
छल-प्रपंच के लिये अँगारे बस्ती-बस्ती लोग मिले। 

हम नैतिक हैं, हम सच्चे हैं, हमसे है धर्मो-ईमान
कविताओं में भरकर नारे बस्ती-बस्ती लोग मिले। 

जिनके मन में सिर्फ हलाहल, अहंकार, भारी उन्माद
छल-असत्य के राजदुलारे बस्ती-बस्ती लोग मिले। 



रमेशराज की तेवरी ...12.
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आहत हुई आत्माओं में खुशी कहाँ
बेबस-भूखी कविताओं में प्यार न ढूँढो जानेमन। 

लपटों-भरी कथाओं वाली बस्ती हम
हमें मिलीं इन सुविधाओं में प्यार न ढूँढो जानेमन। 

हम तो दुःख की व्यापकता संग विश्व जुड़े
अपनी खातिर करुणाओं में प्यार न ढूँढो जानेमन। 

जहाँ प्यार का मतलब केवल भोग रहा
स्वारथ की उन गाथाओं में प्यार न ढूँढो जानेमन। 

जितने झेल सके झेले हैं दंश अमिट
मेरे मन की पीड़ाओं में प्यार न ढूँढो जानेमन। 


रमेशराज की तेवरी ...13.
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चीखों-भरे हुए मंजर की पीड़ा से हम हैं अन्जान
धू-धू जलती रूपकुँअर की पीड़ा कब हम जानेंगे। 

अंगारों के करी हवाले यारो हमने जि़न्दा देह
आहत बेबस याचक स्वर की पीड़ा कब हम जानेंगे। 

कब तक देंगी अग्निपरीक्षा इस भारत की सीता बोल
नारी के शोषित अन्तर की पीड़ा कब हम जानेंगे। 

पूज रहे हम मरे हुओं को, अच्छा लगे मौत-व्यापार
विधवाओं के पावन घर की पीड़ा कब हम जानेंगे। 

जंगल की ही करते चिन्ता हम वहशी, हम आदमखोर
रोज सुलगते हुए शहर की पीड़ा कब हम जानेंगे। 


रमेशराज की तेवरी ....14.
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पत्थर को सोना, सोने को पत्थर बोलें
तोते चतुराई का अक्षर-अक्षर कहना सीख गये। 

कैसी आयी है पश्चिम की नयी सभ्यता
लोग सनातन आदर्शों को नश्वर कहना सीख गये। 

अंधकार से हार मानने की यह स्थिति
है अफसोस लोग अब तम को दिनकर कहना सीख गये। 

देव बनाकर ऐसे अंधों को हम पूजें
जो अंधे फस्ले-बहार को पतझर कहना सीख गये। 

वे जाने तो जाने कहना सबको कूड़ा
महँकी-महँकी चीजों को वे गोबर कहना सीख गये। 


रमेशराज की तेवरी ....15.
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बनी हुईं अब भी अबलाएँ, नहीं दिखे दुर्गा का रूप
झेल रही हैं दुर्घटनाएँ जाने कितनी रूपकुँअर। 

चाहे उसकी रति में झाँका चाहे देखी मुख मुस्कान
सिर्फ मिली हैं शोक-कथाएँ जाने कितनी रूपकुँअर। 

आदिम रीति-रिवाजों के इस उत्सव का बस ये ही खेल
लपटों की हैं परिभाषाएँ जाने कितनी रूपकुँअर। 

मैंने भी चाहा मैं लिख दूँ कई खूबसूरत व्याख्यान
बन जाती व्याकुल कविताएँ जाने कितनी रूपकुँअर। 

कहीं जहर है, कहीं कहर है और कहीं मिट्टी का तेल
बस्ती में अब भी मुरझाएँ जाने कितनी रूपकुँअर। 



रमेशराज की तेवरी ....16.
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चुटकी-भर अभिनंदन पाकर लोग मगन 
थोडे-से बादल क्या बरसे, नदी सरीखे उमड़ पड़े। 

बेशर्मी की बाँहों में ये बाँहें डाल
नैतिकता के ऊपर लादें लोग आज प्रतिबन्ध कड़े। 

इस बस्ती के लोग सोहनी यही करें
तेरे हाथों को सौपेंगे कच्चे-कच्चे वही घड़े। 

देखे वे ही निज कर्मों में पाप लिये
उजले-उजले और सौम्य से दीख रहे जितने मुखड़े। 

छल के मुख पर कथित सत्य का छद्म ओज
सारे असुर आज मिलते हैं चेहरे पर मुस्कान जड़े। 


रमेशराज की तेवरी ....17.
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देख हमारे मन को बोझिल मिला तुम्हें बेहद आनंद
तुमने घातों वाली आदत कभी न छोड़ी मस्ती में। 

उस कोठे पर पहुँचे हर दिन शिफलिस-ग्रस्त जहाँ माहौल
कभी बने तुम गजरा-पायल, कभी चूनरी मस्ती में। 

उसने छिड़का अम्ल सरीखा सबके मन पर अपना रंग
अधरों पर मुस्कान तुम्हारे जो भी आयी मस्ती में। 

सबने नैतिकता माँगी थी, जिससे कुछ कम होता दर्द
तुमने किन्तु परोसी अपनी नीयत मैली मस्ती में। 

बेशर्मी को, बदचलनी को तुमने माना नैतिक धर्म  
रोज गिरायी सब पर तुमने बिजली छल की मस्ती में। 




रमेशराज की तेवरी ....18.
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आग लगी तो हम कैसे हल लेकर आये
काली आँधी-तेज हवाओं वाली दमकल लेकर आये।

सरकारी फाइल में बाढ़ें दर्ज हो गयीं
सूखे की चर्चा सावन में जब भी बादल लेकर आये।

नयी सभ्यता के उद्घोषक हमने देखे
नारी के पाँवों की खातिर साँकल के बल लेकर आये।

वक्त पड़ा तो पेट-पीठ पर ठोकर मारी
जिनके पैरों की खातिर हम अक्सर मखमल लेकर आये।

दिखें आजकल वानर, उल्लू, गिरगिट, गीदड़
नयी सभ्यता के हम कैसे-कैसे जंगल लेकर आये।


रमेशराज की तेवरी ....19.
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पूज रहे हम तम को दिन-सा बता-बता कर पावन कर्म
कैसे उत्सव मना रहे हैं हम वहशी-हम सौदाई। 

भुनी हुई देहों की गन्धें से अपना है चाव-लगाव
चीखों के स्वर सजा रहे हैं हम वहशी-हम सौदाई। 

रोज दुहाई दे वेदों की, कर रामायण लिये क़ुरान
पाख्ण्डों को छुपा रहे हैं हम वहशी-हम सौदाई। 

झौंक यातना की कारा में याचक बेबस अबला नारि
अपना पौरुष दिखा रहे हैं हम वहशी-हम सौदाई। 

चाहे दुःखी शाहबानो हो या फिर रूपकुँअर-सी जान
सबको जि़न्दा जला रहे हैं हम वहशी-हम सौदाई। 



रमेशराज की तेवरी ....20.
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करुणामय थे, वही घिनौने दिखते हैं
मद में डूबे फनकारों के नारे बौने दिखते हैं।

नैतिकता आदर्श सत्य का हाल बुरा
छल के मंच-मंच पै गौने-जादू-टौने दिखते हैं।

जिनमें इन्सानों का पककर माँस रखा
पत्रकार से लेकर कवि तक वही भगौने दिखते हैं।

मानवता की सौगातें वे क्या देंगे
जो सत्ता के रोज़ चाटते जूठे दौने दिखते हैं।

कल तक राजमुकुट-शोभा में शोभित थे
वही आचरण लिये क्षरण अब झूल-बिछौने दिखते हैं।
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+रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630    

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