||' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी -------1.
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दुःख के पंख कतरने हैं
जड़ता-भीतर हलचल के कुछ रंग
हमें अब भरने हैं।
गुणा सुखों में करने हैं
अत्याचारी हर शासन के गाल हमें अब छरने हैं।
अब न सही कल मरने हैं
धूप निकलते ही इस तम के सारे रूप बिखरने हैं।
जितने सूखे झरने हैं
कल जल की कलकल में इनके किस्से पुनः गुजरने हैं।
ये हालात सुधरने हैं
सत्ता के आतंकों में हम डूबे लोग उबरने हैं।
+ रमेशराज
+
+ दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी-- 2.
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हमको न मिली मधुतान कभी, [
4 सगण ]
सुख से न रही पहचान कभी, मुख पै न सजी मुसकान कभी। [ 8 सगण ]
मन को दुःख के अनुप्रास मिले,
रचती मुरली मधुतान कभी, हम भी बनते रसखान कभी।
कटु भाव मिले-नित घाव मिले,
सुख-भास भरे अति हास-भरे हम पा न सके मधुगान कभी।
अभिवादन बीच सियासत-सी,
जग बादल-सा छल में झलका,
गरजा न कभी-बरसा न कभी।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --3.
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हर तरफ आहों भरे मंजर बहुत हैं
दिख रहे चारों तरफ खंजर बहुत हैं। नैन जन के तर बहुत
हैं।।
क्या पता बस्ती से आखिरकार पूछें
गुम हुए हैं आज घर में घर बहुत हैं। नैन जन के तर बहुत
हैं।
दीखतीं जिस ओर भी रौशन दिशाएँ
उस तरफ अब रहजनी के डर बहुत हैं। नैन जन के तर बहुत
हैं।
आ गये आदर्श की किन मंजिलों पर
कंठ में अपने अनैतिक स्वर बहुत हैं। नैन जन के तर बहुत
हैं।
+ रमेशराज
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 4.
बस आज दंगा देखिए,
हाथ में चाकू लिये गुण्डा-लफंगा देखिए।
गुम हुई भागीरथी अब,
आजकल बस बह रही है गटरगंगा देखिए।
देशद्रोही काम जिनके,
उन सभी के हाथ थामे हैं तिरंगा देखिए।
कल मिलेंगे फूल-पत्ती,
आजकल इस आस में हर पेड़ नंगा देखिए।
इन सियासी दीपकों पर,
कर रहा है प्राण न्यौछावर पतंगा देखिए।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने
हैं ' पुस्तक से तेवरी -
------------------------------------------------------------- 5.
तम-भरे विचार को
नूर फैलाता हुआ अब आफ्ताब दीजिए।
अब निरे गँवार को
‘क’ से कबीर की
ही किताब दीजिए।
मौसमे-बहार को
मरुथलों के बीच में चम्पा-गुलाब दीजिए।
मन के अँगार को
नाम कोई दो न दो, इन्क़लाब दीजिए।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने
हैं ' पुस्तक से तेवरी [वर्णिक छंद
] --
------------------------------------------------------------- 6.
यारन की घातन में
जि़न्दगी गुजर गयी ऐसी कुछ बातन में।
भूख अश्रु-धार बीच
नींद कब आयी हमें, चाँद-भरी रातन में।
आज़ादी न जान सके
पले हम आजतक घूँसा और लातन में।
आजा यार गले मिल
बँटा-बँटा मत रह ध्रर्म
और जातन में।
ज्वालामुखी बन देख
जीना अब और नहीं मातन में-घातन में।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 7.
भाषा में गिरगिट-से रंग
चतुर वाक्पटुता सँग सबसे लड़ने बैठे कायर जंग।
अर्थ-संकुचन आया संग
शब्दकोष ले लिख दी कविता, और बनाये शब्द अपंग।
पापी के मन भरी उमंग
जिनमें थी उड़ने की चाहत, चुन-चुन काटीं वही पतंग।
भाव-प्रतीक-व्यंजना भंग
गद्यकार भी ग़ज़ल कह रहे लेकर कई काफिया तंग।
थाम भगीरथ कर में चंग
बिन कुदाल के-गैदारे के निकला लाने सुख की गंग |
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 8.
अब ताप-भरा अहसास भले [ 4 सगण ]
कल कूल रहें न बिना जल के, छलती मन को अब प्यास भले। [
8 सगण ]
झलके कल को अति नूर यहाँ
नयनों पर आज लिखा गम ने, गहरे तम का इतिहास भले।
कल को मुरली-ढपली सँग हो
खल आज न लाज रखें सुख की, सब दें मधु को वनवास भले।
कल नैतिकता अभिनंदित हो
जग झेल रहा छल के-तम के उपहास भले अब त्रास भले।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने
हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 9.
नैतिकता लाचार
खल-कामी के सामने कपड़े
रही उतार।
सारे शिष्टाचार
जिनमें थी मिसरी घुली, छोड़ रहे विष-धार।
देशभक्ति उद्गार
अड़े हुए हैं आजकल बिकने को बाजार।
ये कैसा त्योहार?
हर कर में है खोल से अब बाहर तलवार।
क्या कर लोगे यार
मर्यादा ने लाँघ दी हर सीमा इस बार।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 10.
अभिनंदन आज सियासत का [ 4 सगण ]
सुख की सरिता अब ताप-भरी, जल-कूल कहाँ वह फूल कहाँ। [ 8 सगण ]
हम देख रहे दुःख में जड़ता
नित पीर-बला घटती कुछ है,
घटती पर हाय समूल कहाँ।
खुश हैं रँग ले हम दम्भ-भरे
हर राह चुनी जब पाप-भरी, यह सोच हुई अब भूल कहाँ।
मुख पै मुस्कान लदी जिनके
मन मैल-भरा उनका मिलता,
जग ये अपने अनुकूल कहाँ।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 11.
आग कैसी लगी
जल गयी सभ्यता, आज पशुता हँसे।
दोष जिनमें नहीं
गर्दनों को कसे, आज फंदा हँसे।
नागफनियाँ सुखी
नीम-पीपल दुःखी,
पेड़ बौना हँसे।
सत्य के घर बसा
आज मातम घना, पाप-कुनबा हँसे।
बाप की मृत्यु पर
बेटियाँ रो रहीं, किन्तु बेटा हँसे।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 12.
क्या खाक व्यवस्था बदलेगी
तम उतरेगा यदि गद्दी से, छल का निर्वाचन होना है।
कल घर में मधुर एकता थी
अब डरता घर, टुकड़े-टुकड़े हर मन का आँगन होना है।
परिणाम भले क्या निकलेंगे
सबको दुस्शासन बनना है, सबको दुर्योधन होना है।
सबसे आँधी-सा मिलता वह
इस पै उसका यह तुर्रा है यूँ उसको सावन होना है।
तहजीब विदेशी ये देगी
फूलों से खुशबू, मधुमन से मधु का निर्वासन होना है।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 13.
इस युग का चिन्तन बौना है
बातें जितनी लम्बी-चौड़ी, उतना ही दर्शन बौना है।
बस इतनी-सी है जाँच-परख
तन आदमकद जितने दिखते, उनके भीतर मन बौना है।
छल को मालाएँ मंच-मंच
स्वार्थ-भरी इस दुनिया में
सच का अभिनंदन बौना है।
हमको भाते हैं तहखाने
हम चीख-चीख कर बोल रहे ‘इस नभ का आँगन बोना है’।
आमूल नहीं कुछ भी बदले
जिन सोचों से हम क्रान्ति रचें, उनका परिवर्तन बौना है।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 14.
हिय में जिय अति हूक रहे [ 4 सगण ]
वह बात जिसे कहते मधुजा, अब आ अधरों पर मूक रहे। [
8 सगण ]
मन में अब जाल-सवाल घने
तम ने ग़म ने उर घेर लिया, मन-बीच न कोयल-कूक रहे।
बस एक सियासत-सी पसरी
सुख की गणना उलझी-उलझी, कुछ भूल रहे-कुछ चूक रहे।
मधुप्रीति यहाँ-सदरीति यहाँ
उनकी हम बात करें अब क्या, कर जो मन के नित टूक रहे।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने
हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------[ वर्णिक छंद
] --------------15.
लड़ाय रहे आप तो
सम्प्रदाय रार को बढ़ाय रहे आप तो।
भेद और फूट डाल
घर-घर आग-सी लगाय रहे आप तो।
आदमी का खून चूस
रोज मौज-मस्तियाँ मनाय रहे
आप तो।
गुण्डा किन्तु नेता नाम
हँसि-हँसि देश कूँ डुबाय
रहे आप तो।
भूखे सोयें जन यहाँ
रसगुल्ले रोज ही उड़ाय रहे आप तो।
+ रमेशराज
+
+' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 16.
यार जंग जारी रख
क्रान्तिकारी सोच के ये प्रसंग जारी रख।
लूटते हैं नेता आज
उनके विरोध में अंग-अंग जारी रख।
जि़न्दगी है घाव-घाव
किन्तु मुसकान के शोख रंग जारी रख।
जैसे तलवार चले
‘तेवरी’ के बीच
में वो तरंग जारी रख।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 17.
कितने गदगद हो जाते हैं
जब कोई थैली पाते हैं जनसेवकजी।
जन-जन को अपनानी हिन्दी
अँगरेजी में समझाते हैं जनसेवकजी।
रोटी चीज नहीं खाने की
अब तो बस रिश्वत खाते हैं जनसेवकजी।
सुरा-सुन्दरी रक्तपात सम
शौक बहुत से फरमाते हैं जनसेवकजी।
सपनों में भी ये आलम है
कुर्सी-कुर्सी चिल्लाते हैं
जनसेवकजी।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 18.
मीठे-मीठे ख्वाब तू
मान मेरी बात मन में बसानौ छोडि़ दै।
नेताजी से आस अब
थोड़े-से सुधार की भी यूँ
लगानौ छोडि़ दै।
हिम्मत से काम ले
मान मेरे यार ऐसे घबरानौ छोडि़ दै।
सुधरेंगे ये नहीं
साँपन कूँ बार-बार आजमानौ छोडि़ दै।
कौन भयौ पार है
कागज की नाव जल पै तिरानौ छोडि़ दै।
खुशियों को पंख दे
परकटी भावनाएँ यूँ उड़ानौ छोडि़ दै।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी --
------------------------------------------------------------- 19.
हम देख रहे
अट्टहास के भीतर भी ग़म देख रहे।
यम देख रहे
खुशियाँ चूड़ी तोड़ें मातम देख रहे।
नम देख रहे
नयन-नयन को कैसा हरदम देख
रहे।
बम देख रहे
रक्तपात-हिंसा का आलम देख रहे।
खम देख रहे
डूब रही धड़कन के उत्क्रम देख रहे।
+ रमेशराज
+
+ ' दुःख के पन्ख कतरने हैं ' पुस्तक से तेवरी ---
------------------------------------------------------------- 20.
अब जान महान कबीर हमें [ 4 सगण ]
जब भी जग के मन घाव लगे, महसूस हुई वह पीर हमें। [
8 सगण ]
हम गौतम हैं हम नानक हैं
खल तू जिसके तन मार रहा, सब वे लगते अब तीर हमें।
हम केशव हैं-मनमोहन हैं
मिलता सुख आहत द्रौपदि का हर बार बढ़ाकर चीर हमें।
हम मंत्र न कायरता तम के
सह लें जितना हम संयम है, फिर जान दिवाकर-वीर हमें।
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