+|| हिन्दीग़ज़ल
में
कितनी
ग़ज़ल? ||
-रमेशराज
…………………………………………………………………………………………………………………………
हिन्दी में
ग़ज़ल
अपने
विशुद्ध शास्त्रीय
सरोकारों
के
साथ
कही
या
लिखी
जाए, इस
बात
पर
किसे
आपत्ति
हो
सकती
है।
ग़ज़ल
का
ग़ज़लपन
यदि
उसके
सृजन
में
परिलक्षित
नहीं
होगा
तो
उसे
ग़ज़ल
मानने
या
मनवाने
की
जोर-जबरदस्ती
केवल
धींगामुश्ती
ही
कही
जाएगी।
हिन्दी में
थोक
के
भाव
ग़ज़ल-संग्रह
निकल
रहे
हैं
और
हर
ग़ज़ल
संग्रह
में
ग़ज़ल
के
शिल्प
और
कथ्य
के
सत्य
को
दूसरों
को
समझाने
या
बताने
के
लिए
लम्बी-चैड़ी
भूमिका
के
रूप
में
बयानबाजी
भी
[ग़ज़ल के
पंडित
या
किसी
मुल्ला-काजी
की
तरह]
उसमें
मौजूद
है।
इससे
ग़ज़ल
का
क्या
भला
होगा, यह
सोचने
का
विषय
इसलिए
है
क्योंकि
हर
हिन्दी
ग़ज़लकार
ग़ज़ल
के
इश्किया
रचाव
से
बँधा हुआ
है
और
ग़ज़ल
को
सामाजिक
क्रान्ति
का
जरूरी
औजार
भी
बता
रहा
है।
हिन्दी में
आकर
यदि
ग़ज़ल
की
शक़्ल
क्रान्तिकारी
हो
गयी
है
तो
उन
ग़ज़लों
के
बारे
में
क्या
कहा
जाएगा
जिनमें
रनिवास, प्यास, देह
के
रास
का
मधुप्रास
मौजूद
है।
हिन्दी
में
आकर
यदि
ग़ज़ल
एक
अग्निलय
है
तो
उससे
चुम्बन-आलिंगन
का
परिचय
नहीं
मिलना
चाहिए।
एक
ही
ग़ज़ल
के
एक
शे’र
में
अभिसार
के
क्षणों का
सीत्कार
और
दूसरे
शे’र
में
बलत्कृत, शोषित, पीडि़त
नारी
का
चीत्कार, क्या
यह
नहीं
दर्शाता
कि
ग़ज़लकार
किसी
मानसिक
हीनग्रन्थि
का
शिकार
है।
प्रेमिका
को
बाँहों
में
भरकर
सामाजिक
आक्रोश
या
सामाजिक
सरोकारों
के
होश
की
बातें
करना
ग़ज़ल
के
क्षेत्र
में
इधर -उधर मुँह
मारने
के
सिवा
क्या
हो
सकता
है? सम्भवतः
ग़ज़लकारों
की
इसी
कलाकारी
से
खीजकर
डाॅ. प्रभाकर
माचवे
ने
सटीक
टिप्पणी
की- ‘‘बाजार
में
माल
चल
गया, फिर शुद्ध के
नाम
पर
क्या-क्या
वनस्पतियाँ
मिलावट
में
आ
गयीं, जिसका
विश्लेषण
सामान्य
पाठक
तो
नहीं
कर
पाता।
हिन्दी
के
सम्पादक
भी
नहीं
कर
पाते।
हिन्दी
में
लिखी
जाने
वाली
‘ग़ज़ल’ नामक
रचना
न
उत्तम
कविता
है, न
उत्तम
गीत।... आज
ग़ज़ल
के
नाम
पर
हिन्दी
में
जो
कुछ
छप
रहा
है, ऐसी
रचनाओं
को
देखकर
ही
कभी
समर्थ
रामदास
ने
मराठी
में
कहा
था-‘‘ शायरी
घास
की
तरह
उगने
लगी
है।
किसी
ने
उर्दू
में
कहा-‘‘ शायरी
चारा
समझकर
सब
गधे चरने
लगे।
[प्रसंगवश,फर.-1994, पृ.51
सवाल यह
है
कि
डॉ. प्रभाकर
माचवे
यह
कहकर
कि ' हिन्दी
में
लिखी
जाने
वाली
‘ग़ज़ल’ नामक
रचना
न
उत्तम
कविता
है, न
उत्तम
गीत', हिन्दी
ग़ज़ल
को
उत्तम
कविता
क्यों
नहीं
मानते? इस
सवाल
के
उत्तर
के
लिए
आइए
ग़ज़ल
के
उस
शास्त्रीय
पक्ष
पर
नजर
डालें, जिससे
उसका
ग़ज़लपन
तय
होता
है-
‘‘ग़ज़ल
मूलतः
अरबी
भाषा
का
शब्द
है, जिसका
अर्थ
है-‘नारी
के
सौन्दर्य का
वर्णन
तथा
नारी
से
बातचीत’।
नालंदा
अद्यतन
कोष
में
ग़ज़ल
का
अर्थ
[ फारसी और
उर्दू
में
] ‘ शृंगार
की
कविता’ दिया
गया
है।
लखनऊ हिन्दी
संस्थान
द्वारा
प्रकाशित
'उर्दू-हिन्दी
शब्दकोष' में
ग़ज़ल
का
अर्थ-‘प्रेमिका
से
वार्तालाप
है।’
डॉ.
नीलम
महतो
का
भी
मानना
है-‘ ग़ज़ल
अरबी
शब्द
है
जिसका
अर्थ-‘सूत
का
ताना
है।
जब
यह
शब्द
स्त्रियों
के
सन्दर्भ
में
प्रयुक्त
होता
है
तो
उनसे
प्रेम-मोहब्बत
की
बातें
करना
हो
जाता
है।
उनकी
सुन्दरता
की
तारीफ
करना
हो
जाता
है।
उनके
साथ
आमोद-प्रमोद
करना
हो
जाता
है।’’ {तुलसी प्रभा, सित-2000 पृ. 18}
हिन्दी
ग़ज़लकार
या इसके
पैरोकार
इसी प्रेमिका
से प्रेमपूर्ण
बातचीत
करने वाली
विधा ग़ज़ल
के कैसे-कैसे
अर्थ निकालते
हैं, उन
पर गौर
फरमाइएँ-
डॉ . पुरुषोत्तम
सत्यप्रेमी
कहते
हैं-‘‘ग़ज़ल
की
विधा
उर्दू
से
हिन्दी
में
क्या
आयी
कि
गोया
गुल्लो-बुलबुल
की
सहोदर
से
निकलकर
जीवन
की
सीमाओं
में
दाखिल
हो
गयी।’’
डॉ. गोपालकृष्ण
शर्मा
कहते
हैं - ‘‘स्वयं
ग़ज़लकारों
ने
अपने
जीवन
में
सामाजिक
विसंगतियों
को
भोगा
और
झेला
है, तभी
तो
उनका
चित्रण
विश्वसनीय
और
यथार्थ
बन
पड़ा
है।
उनके
रचना-संग्रहों
के
स्वर
बड़े
बेवाक
सशक्त
और
मनमस्तिष्क
को
आन्दोलित
करने
वाले
हैं।’’
हिन्दी ग़ज़ल
के
वरिष्ठ
हस्ताक्षर
डॉ. शेरजंग
गर्ग
ने
भी
यही
रट
लगायी
कि-‘‘ हिन्दी
ग़ज़ल
का
उदय
देश
की
आज़ादी
के
साथ
हुआ
और
आज़ादी
के
बाद
देश
की
व्यवस्था
से
मोहभंग
की
स्थिति
तथा
वर्गसंघर्ष
ने
इसे
जनवादी
स्वरूप
प्रदान
किया।’’ {सौगात, अप्रैल-09, पृ.3}
डॉ. प्रभा दीक्षित
के
स्वरों
से
भी
हिन्दी
ग़ज़ल
को
लेकर
‘हाँ-हाँ’ उभरी
और
उन्होंने
भी
ग़ज़ल
के
तेवरों
को
बदलते
हुए
उसे
जनवादी
जेबर
पहनाये
और
अपना बयान
दर्ज
कराया-‘‘ आज
भूमण्डलीकरण
के
दौर
में
जब
साम्राज्यवादी
उपभोक्ता, अपसंस्कृति
मिलकर
आम
आदमी
को
गुलाम
या
मशीन
बनाने
का
प्रयास
कर
रही
है, ऐसी
स्थिति
में
जो
साहित्य
आमजन
की
पक्षधरता
में
अपनी
साहित्य-धर्मिता
का
निर्वाह
कर
रहा
है, उसमें
आधुनिक
ग़ज़ल
अपने
जनवादी
तेवरों
के
साथ
अगली
पंक्ति
में
दृष्टिगत
हो
रही
है।’’ {सौगात,
अप्रैल-2009, पृ.4}
एक जरूरी
प्रश्न
अवहेलना
या उपेक्षा
की खाक
में ……
ग़ज़ल में
चारित्रिक
बदलाव
और
उसके
नये
जनवादी
चरित्र
के
रचाव
को
लेकर
दिये
गये
बयानों
से
इतर
भी
ग़ज़ल
के
यथार्थवादी
स्वर
को
लेकर
अच्छा-खासा
हो
हल्ला
है।
इस
हो-हल्ले
के
बीच
एक
सार्थक
सवाल
कि
ग़ज़ल
के
इस
बदले
हुए
चरित्र
का
आकलन
कैसे
किया
जाए
या
इस
चरित्र
को
नया
क्या
नाम
दिया
जाए, एक
बवाल
बनकर
रह
गया
है।
इससे
हर
कोई अपनी
जान
छुड़ाने
की
फिराक
में
है।
कुल
मिलाकर
यह
एक
जरूरी
प्रश्न
अवहेलना
या
उपेक्षा
की
खाक
में
है?
कोठे की चम्पाबाई और रानी लक्ष्मी बाई में अंतर कब महसूस करेंगे हिदी ग़ज़लकार ?
ग़ज़ल में कथित रूप से आये चारित्रिक बदलाव जिसमें ग़ज़ल अब कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई के स्थान पर रानी लक्ष्मी बाई बन अब तलवार लेकर शोषकों पर वार कर रही है, इसे फिर भी ग़ज़ल क्यों कहा जाये या रानी लक्ष्मी बाई के स्थान पर इसे चम्पाबाई ही क्यों पुकारा जाये , इस प्रश्न का सही और सार्थक उत्तर
हिन्दी
ग़ज़लकार
के
पास
नहीं
है।
उसके
पास
तो
हिन्दी
ग़ज़ल
के
जनवादी
तेवर
की
काँव-काँव
है।
मेंढ़क
जैसी
टर्र-टर्र
है।
बन्दर
जैसी
घुड़की
है
कि
ग़ज़ल
के
इस
बदले
हुए
रूप
को
जानो-पहचानो
और
मानो।
ग़ज़ल
अगर
कथित
उर्दू
से
हिन्दी
में
आकर
हाथों
में
लगी
मशाल
हो
गयी
है, तो
हिन्दी
में
थोक
के
भाव
लिखी
जा
रही
ऐसी
ग़ज़लों
को
क्या
पुकारा
जाये, जिनके
कथन
में
आज
भी
देह
का
मधुमास
है, मिलन
की
प्यास
है, संयोग-वियोग
का
रत्यात्मक
इतिहास
है।
इस प्रश्न पर हर ग़ज़लकार मौन है |
हिन्दी की
ग़ज़लों
के
पास
अपनी
कोई
सार्थक
ज़मीन
है
ही
नहीं
.......
हिन्दी में
प्रेमी
से
अभिसार, चुम्बन
की
बौछार
करने
वाली
विधा
का
नाम
भी
ग़ज़ल
और
जनवादी
तेवर
के
जेबर
पहनने वाली
विधा
का
नाम
भी
ग़ज़ल
| अंतर्विरोधों
से
भरी
हुयी
है हिंदीग़ज़ल
की
शक़ल। दो
विपरीत
चरित्रों
के
घालमेल
की
खिचड़ी
का
आस्वादन
करने
के
बाद
ही
सम्भवतः
ज्ञान
प्रकाश
विवेक
ने
यह
बात
कही-‘‘ इधर
लिखी
जा
रही
अधिसंख्य
ग़ज़लों
को
पढ़कर
ऐसा
प्रतीत
होता
है
कि
हिन्दी
की
ग़ज़लों
के
पास
अपनी
कोई
सार्थक
ज़मीन
है
ही
नहीं।’’ [प्रसंगवश, फरवरी-94, पृ. 52]
ग़ज़ल के
प्रणयानुभूति
में
सामाजिक
सरोकारों
की
विभूति
देखकर
ही
संभवतः
कैलाश
गौतम
ने
तो
यहाँ
तक
कह
दिया- ‘‘आज
ग़ज़ल
धीरे-धीरे
गरीब
की
बीवी
होती
जा
रही
है।
लोग
उसकी
सिधाई
[सीधापन] का
भरपूर
और
ग़लत
फायदा
उठा
रहे
हैं।
हर
रचनाकार
ग़ज़ल
पर
हाथ
साफ
कर
रहा
है
और
ग़ज़ल
‘टुकुर-टुकुर’ मुँह
देख
रही
है।’’ [प्रसंगवश, फर.-94 पृ. 51]
हिन्दी में
आकर
‘ग़ज़ल’ शब्द
का
अर्थ
इतना
असमर्थ
और
लाचार
हो
चुका
है
कि
न
तो
उसका
कोई
शास्त्रीय
सरोकार
शेष
बचा
है
और
न
उसे
किसी
भी
तरह
का
‘आज
का
बदलाव’ पचा
है।
किन्तु
हिन्दी
में
आयी
ग़ज़ल
के
पैरोकार
हैं
कि
फिर
भी
मगजमारी
कर
रहे
हैं ।
प्रेमिका
को
आगोश
में
लेकर
उसमें
असंतोष, विरोध, विद्रोह
और
जोश
भर
रहे
हैं।
‘जोर
लगा
के
हैईशा’ की
तर्ज
पर
ग़ज़ल
के
शास्त्रीय
या
शब्दकोषीय
मूल
अर्थ
को
पीछे
धकेल
रहे
हैं।
उसमें
नया
जनवादी
चरित्र
फिट
कर
रहे
हैं
| यथा ....
‘‘औरत
अगर
घर
सम्हालने
और
प्रसव
पीड़ा
सहने
के
अलावा
सामाजिक
क्षेत्रों
में
सक्रिय
होकर
संघर्ष
करने
लगी
तो
क्या
वह
औरत
नहीं
रहीं? जैसे
मनुष्य
के
शरीर
का, चिन्तन
का
और
कर्मक्षेत्र
का
विकास
होता
है, हिन्दी
ग़ज़ल
ने
भी
उसी
तरह
सार्थक
विकास
पाया
है।
अब
ग़ज़ल
के
तेवर
रोमानी
दुनिया
से
ऊपर
उठकर
दमन-शोषण
के
खिलाफ
सुलगती
हुई
मशाल
बन
गये
हैं।
यह
उसके
कथ्य
का
उल्लेखनीय
विस्तार
है।’’ [प्रसंगवश, फर.-94-पृ. 46]
ग़ज़ल
के
रोमानी
तेवर
भले
ही
आज
दमन-शोषण
के
खिलाफ
जलती
हुर्ठ
मशाल
बन
गये
हों, किन्तु
इन
तेवरों
का
आकलन
क्या
ग़ज़ल
की
पृष्ठभूमि, उसके
उद्भव
या
शास्त्रीय आधार
पर
किये
गये
नामकरण
के
द्वारा
किया
जा
सकता
है? यह
सवाल
आज
भारी
अफसोस
और
मलाल
के
साथ
उत्तर
की
प्रतीक्षा
में
खड़ा
है।
हिंदी
ग़ज़ल में सीत्कार
और चीत्कार
को एक
ही खाने
में फिट
करने का
फार्मूला
हिट !!
माना औरत, औरत
ही
होती
है, किन्तु
जब
वह
किसी
से
ब्याह
कर
लेती
है
तो
ब्याहता
कहलाती
है।
प्रसव-पीड़ा
सहने
के
बाद
शिुशु
को
जन्म
देती
है
तो
माँ
बन
जाती
है।
वही
औरत
जब
सामाजिक
संघर्ष
में
कूदती
है
तो
और
कुछ
कहलाये
न
कहलाये-वीरांगना
कहलाती
है।
नारी
के
कमक्षेत्र
को
स्पष्ट
करने
के
लिये
नारी
के
जो
स्वरूप
बनते
हैं, उनकी
सार्थकता
इन्हीं
सार्थक
नामों
या
संज्ञा
विशेषणों
में
नहीं
है
तो
आखिर
किसमें
है? नारी
के
सीत्कार
और
चीत्कार
को
एक
ही
खाने
में
फिट
करने
का
फार्मूला
भले
ही
हिट
है, पर
ये
ऐसी
गिटपिट
है
जिसमें
तुकें
तो
मिलती
हैं
लेकिन
नाम
की
सार्थकता
को
खोकर।
ऐसे न
तो ग़ज़ल
का भला
होगा न
हिन्दी
ग़ज़ल
का
ग़ज़ल का
रोमानी
संस्कारों
को
त्यागकर
दमन-शोषण
के
खिलाफ
मशाल
बनकर
यदि
यही
कथ्य
का
ही
उल्लेखनीय
विस्तार
है
तो
क्या
इसी
तर्ज
पर
लघुकथा
का
विस्तार
उपन्यास
तक
किया
जा
सकता
है! अगर
यह
सम्भव
है
तो
क्या
ऐसे
उपन्यास
को
उपन्यास
नहीं
‘लघुकथा’ बताया
जा
सकता
है? जाहिर
है, इस
प्रकार
के
विचारों
या
चिन्तन
से
न
तो
ग़ज़ल
का
भला
होगा
न
हिन्दी
ग़ज़ल
का।
हिन्दी
में
ग़ज़ल
की
यदि
कोई
नयी
पहचान
बनी
है
तो
यह
पहचान
एक
नये
नाम
की
मांग
भी
कर
रही
है?
ग़ज़ल
की बहर
‘‘ग़ज़ल
में
लयात्मक
ओज
भरने
के
लिये
विशिष्ट
छन्द
अर्थात्
बहर
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
ब-हर
उन
खास
शब्दों
को
कहते
हैं
जिन
पर
शे’र
को
तोला
जाता
है
और
जाँचा
जाता
है
कि
शे’र
का
वज़्न
ठीक
है
या
नहीं।
बहर
जिन
टुकड़ों
से
बनती
है, उनको
अरक़ान
और
उसके
हर
किस्से
को
रुक़्न
कहते
हैं।
उर्दू
शायरी
में
कुल
9 रुक्न-
‘फऊलुन’, ‘फाइलुन,’ ‘मुफाईलुन’, ‘मुस्तफलुन’, ‘मुतफाइलुन’, ‘फाइलातुन’, मऊफलात, ‘फऊल’, ‘फेलुन’ प्रचलित
हैं।
[ विनोद कुमार
उइके
‘दीप’, तुलसीप्रभा, फर. 09पृ. 17 ]
रुक़्न से
अरक़ान
तक
के
सधे
हुए
प्रयोग
से
ग़ज़ल
की
बहर
बनती
है।
एक
ग़ज़ल
में
एक ही
प्रकार
की
बहर
का
प्रयोग
ग़ज़ल
के
हर
मिसरे
में
किया
जाता
है।
ग़ज़ल
का
ग़ज़लपन
उसकी
बहर
के
बिना
तय
नहीं
किया
जा
सकता।
रुक़्न
या
अरकान
भी
ग़ज़ल
की
जान
होते
हैं।
किन्तु
हिन्दी
में
ग़ज़ल
की
इस
शक़्ल
से
हिन्दी
ग़ज़लकार
नाक-भौं
सिकोड़ता
है, वह
ग़ज़ल
के
साथ
अपनी
ही
एक
ख़ासियत
जोड़ता
है।
बहर
के
भीतर
का
ओज
निचोड़ता
है, उसे
तोड़ता-फोड़ता
है
और
एक
नया
जुमला
छोड़ता
है-‘‘ फैलुन-फाइलातुन’ ये
सब
क्या
है? क्या
हिन्दी
और
संस्कृत
के
व्याकरण
व
छन्द
शास्त्र
इतने
गरीब
हैं
कि
इसका
जवाब
हमारे
पास
नहीं
है।’’ ;विज्ञानव्रत, सौगात, अप्रैल-09, पृ.9द्ध
जहाँ तक
हिन्दी
और
संस्कृत
के
व्याकरण
या
छन्द-शास्त्र
का
सवाल
है
तो
इस
पर
शंका-आशंका
करना, आसमान
पर
थूकने
के
समान
होगा।
बात
उरुज/ फैलुन-फाइलुन
से
दामन
छुड़ाने
और
ग़ज़ल
में
हिन्दी-छन्दशास्त्र
अपनाने
की
है।
ग़ज़ल के
छंदशास्त्र
[उरूज ] से
नाक-भों
सिकोड़ने
वाले
हिन्दी
के
छंद-शास्त्र
की
कोई
भी
विधा
अपना
सकते
हैं
और
स्वाभिमान
के
साथ
बता
सकते
हैं
कि
हम
हिन्दी
में
ग़ज़ल
की
नकल
नहीं
करेंगे? ग़ज़ल
की
विषय-वस्तु
या
उसकी
बहरों
से
तो
भारी
विद्रोह, पर
ग़ज़ल
शब्द
के
साथ
महामोह
में
खरपतवार
की
तरह
होता
हिन्दी
ग़ज़ल
का
सृजन
संदिग्ध
तो
रहेगा
ही।
ग़ज़ल में
हिन्दी
छंदों
के
प्रयोग
को
लेकर
उर्दू
की
बहर
के
जानकार
क्या
कहते
हैं
आइये
देखें -‘‘ ग़ज़ल
एक
बेहद
महीन
काव्य-शैली
है।
इसका
मिजाज
और
सुझाव
काफी
लजीज
होता
है। दरअसल
जो
अब
तक
इन
बारीकियों
को
ठीक
से
नहीं
समझ
पाये
हैं, वे
ही
ग़ज़ल
को
मात्रिक
छन्द
मानने
की
कुचेष्टा
करने
में
लगे
हुए
हैं।
[डॉ. मधुसूदन
साहा, तुलसी
प्रभा
सित-07 पृ. 20]
हिन्दी ग़ज़ल
में
मात्रिक
छन्द
से
पैदा
किया
गया
मकरन्द
उर्दू
वालों
के
लिये
क्यों
कसैला
है? क्या
इस
बात
पर
हिन्दी
वालों
को
सोचना
नहीं
चाहिए? जापान
से
हाइकु
हिन्दी
में
आया
लेकिन
बदशक्ल
नहीं
हुआ।
उर्दू
वालों
ने
दोहे
लिखे
किन्तु
दोहे
की
सम्पूर्ण शर्तों
के
साथ।
दोहे
में
रुक्न
और
अरकान
का
विधान
उन्होंने
दोहे
की
शान
के
खिलाफ
समझा, जबकि
दोहे
के
लिए
एक
नयी
बहर ईजाद
की
जा
सकती
है
किन्तु, ऐसे
दोहे
से
क्या
हिन्दी
कविता
समृद्धि पा
सकती
है? अगर
दोहे
के
साथ
रुक्न-अरकान
का
जोड़-घटाव
दोहे
के
घाव
पैदा
कर
सकता
है
तो
क्या
हिन्दी
छन्दों
के
प्रयोग
से
उर्दू
के
जानकारों
के
मन
में
टीस
या
घाव
पैदा
नहीं
होंगे?
बहर और
हिन्दी-छन्द
के
घालमेल
को
लेकर
सशक्त
हिन्दी
ग़ज़लकार जहीर
कुरैशी
को
आत्मग्लानि
का
ऐसा
बुखार
चढ़ा
कि
उन्हें
यह
स्पष्ट
करना
ही
पड़ा
कि-‘‘दोहा
मात्रिक
छंद
में
ग़ज़ल
नहीं
हो
सकती।
अतः
ग़ज़ल
को
मात्रिक
और
वर्णिक
छन्द
में
बांधने के
लिये
यह
एक
प्रबल
अवरोध
का
प्रश्न
खड़ा
करेगा।
मैंने
भी
यही
सब
सोचकर
दोहा-ग़ज़ल
कहना
समाप्त
कर
दिया
है।
[तुलसी प्रभा, सित-09, पृ.20]
हिन्दी में
ग़ज़ल
नहीं, ‘ग़ज़ल-गीतशैली’, ‘ग़ज़ल-गीत’, ‘ग़ज़ल
मर्सिया-शैली’, ‘दोहा-शैली’, ‘ग़ज़लमिश्रित-शैली’ की
भरी
हुई
थैली
खूब
बिक
रही
है।
इस
हिन्दी
ग़ज़ल
में
बहर
को
तलाशना
मना
है।
हिन्दी
ग़ज़लकार
ग़ज़ल
नाम
पर
तो
फिदा
है, लेकिन
उसकी
ग़ज़लों
से
उरूज, बहर, रुक्न, अरकान
का
लयात्मक
ओज
लापता
है।
उर्दू
के
जानकारों
के
लिये
ये
खता
है
तो
खता
है? इस
खता
पर
यह
कहकर
पर्दा
डाला
नहीं
जा
सकता
कि-‘‘ जिस
व्याकरण
को
हम
नहीं
जानते
और
जो
हिन्दी
भाषा
के
‘मूड’ के
ठीक
विपरीत
पड़ती
है
उसे
‘टच’ करना
हमारी
मौलिकता
को
लांछित
करेगा
ही।’ डॉ. उर्मिलेश, ग़ज़ल
से
ग़ज़ल
तक, पृ.11द्ध
ग़ज़ल
के हर
शेर की
स्वतंत्र
सत्ता
ग़ज़ल के
हर
शेर
की
सत्ता
स्वतंत्र
होती
है
जैसे
एक
दोहे
के
कथ्य
से
दूसरे
दोहे
की
विषयवस्तु
को
अलग
करके
रख
जाता
है, ठीक
उसी
प्रकार
ग़ज़ल
का
हर
शे’र
गीत
की
तरह
एक
दूसरे
का
पूरक
या
बँधा
हुआ
नहीं
होना
चाहिए।
‘अफसाने-सुखन’ नामक
पुस्तक
में
जनाब
मुमताजुर्रशीद
लिखते
हैं-‘ ग़ज़ल
वह
नज्म
है, जिसका
हर
शे’र
बजाते
खुद
मुकम्मल
और
दूसरों
से
बेनियाज
होता
है।’’
शे’र की
इस
स्वतंत्र
सत्ता
के
अन्तर्गत
चूंकि
बाँधना ग़ज़ल
को
ही
होता
है, अतः
शे’रों
के
स्वतंत्र
कथन
का
अर्थ
यह
भी
नहीं
होना
चाहिए
कि
ग़ज़ल
का
ग़ज़लपन
[प्रेमानुभूति] ही
खण्डित
हो
जाए।
परस्पर
घोर
विरोधी कथनों
को उजागर करने वाले एक
ग़ज़ल
के
विभिन्न शे’र
रस
की
परिपक्व
अवस्था
को
खण्डित
कर
सकते
हैं।
अतः
रसाभास
से
बचने
के
लिए
शे’रों
का
स्वतंत्र
अस्तित्व
भी
ग़ज़ल
के
किसी
विशिष्ट
या
स्थायी
भाव
का
पूरक
अवश्य
होना
चाहिए।
ग़ज़ल के
हर
शे’र
की
स्वतंत्र
सत्ता
का
अर्थ
यह
कैसे
सम्भव
है, कि
एक
शेर
में
व्यवस्था
विरोध
तो
दूसरे
शे’र
में
नायिका
के
विरह
की
आग
में
जलने
का
बोध-
हर कदम
पर
है
यहाँ
खूने-तमन्ना-कत्ले
आम
/ काम
था
जो
भेडि़ए
का
आदमी
करते
रहे।
बिस्तरे गुल
पर
मोहब्बत
हो
रही
थी
बेकरार
/ शम्मा
की
लौ
पर
मगर
हम
शायरी
करते
रहे।
शम्मा
की
लौ
पर
की
गयी
उक्त
शायरी
से
बनी
ग़ज़ल
के
बिम्ब
चूंकि
परस्पर
विरोधी हैं
अतः
यह
न
तो
शृंगार
तक
पहुँचाएँगे
और
न
आदमी
के
भेडि़येपन
का
‘विरोध’ कर
पाएँगे।
ऐसी
ग़ज़ल
की
कहन
से
या
तो
रसाभास
पैदा
होगा
या
उपहास।
ऐसे
में
ग़ज़ल
के
ग़ज़लपन
की
मिठास
बेमानी
हो
जाएगी।
एक ही
विषय
पर
कहे
गये
दस
दोहों
का
आस्वादन
जैसे
मन
के
भीतर
रस
की
उत्तरोत्तर
वृद्धि
कर
सकता
है, ठीक
उसी
प्रकार
ग़ज़ल
के
तीन, पांच
या
सात
शे’र
स्वतंत्र
होते
हुए
भी
ग़ज़ल
को
एक
ही
रस
की
ऊँचाइयाँ
प्रदान
करते
हैं
तो
ग़ज़ल
की
उत्तमता
असंदिग्ध्
होगी।
सार
यह
है
कि
ग़ज़ल
का
हर
शे’र
भले
ही
दोहे की
तरह
अपनी
विषयवस्तु
को
लेकर
स्वतंत्र
होता
है
लेकिन
इन
शे’रों
से
रचित
ग़ज़ल
को
यही
शे’र
एक
ही
जमीन, एक
ही
स्थायी
भाव
या
रस
प्रदान
करते
हुए
होने
चाहिए।
ग़ज़ल के
संदर्भ
में
इन
सब
बातों
को
जानते
या
मानते
हुए
या
अनजाने
हिन्दी
के
ग़ज़लकारों
की
मति
की
लय, ग़ज़ल
के
आशय
के
उस
परिचय
को
धो देना
चाहती
है
जो
शे'र
की
स्वतंत्र
सत्ता
को
खंडित
नहीं
करता
बल्कि
एक
समान
प्रकार
की
रसात्मकता
में
एक
प्रकार
के
विष
को
घुलने
या
घोलने
से
बचाता
है ।
हिंदी
ग़ज़लकार
तो ग़ज़ल
के
नाम
पर
शे’रों
का
एक
ऐसा
जंगल
बो
देना
चाहता
है
जिसमें
काँटे
ही
काँटे
हों, चाँटे
ही
चाँटे
हों।
हिन्दी ग़ज़ल
के
प्रखर
प्रवक्ता
डॉ . उर्मिलेश
परमाते
हैं-‘‘ डॉ . यायावर
ने
उर्दू
ग़ज़ल
के
पारम्परिक
मिथक
को
तोड़ते
हुए
कुछ
अलग
हटकर
कार्य
किया
है।
मसलन, उर्दू
ग़ज़ल
में
हर
शे’र
स्वतंत्र
सत्ता
रखता
है, लेकिन
डॉ . यायावर
की
अधिसंख्य
ग़ज़लों
के
शे’र
एक
ही
विषयवस्तु
को
आगे
बढ़ाते
हैं।
गीत
में
जैसे
एक
ही
केन्द्रीय
भाव
को
विविध
बंधों -उपबंधों में
निबद्ध किया
जाता
है, उसी
तरह
डॉ . यायावर
भी
अपनी
ग़ज़लों
में
गीत
की
इसी
प्रक्रिया
को
दुहराते-से
नजर
आते
हैं
[सीप में
समंदर, पृ.8]।
लीक से
हटकर
कार्य
करने
की
सनक
से
ग़ज़ल
के
पारम्परिक
स्वरूप
के
मिथक
को
तोड़ने
के
परिणाम
भले
ही
हिन्दी
ग़ज़लकार
को
विवादास्पद
बना
दे, किन्तु
परिणाम
की
चिन्ता
से
लापरवाह
आज
का
हिन्दी
ग़ज़लकार
यह
गुनाह
कर
रहा
है।
ग़ज़ल
को
गीत
बना
रहा
है
और
उसे
‘हिन्दीग़ज़ल’ बता
रहा
है।
ग़ज़ल के
पारम्परिक
मिथकों
की
तोड़-फोड़
की
होड़
ने
ग़ज़ल
को
कैसा
रूप
प्रदान
किया
है, बानगी-प्रस्तुत
है- '' सन्ध्या
डूबी
खिली
चांदनी/ लौट
नहीं
पाया
है
नथुआ, सोच
रही
माँ
खड़ी
द्वार
पर/ क्यों
न आज
आया
है
नथुआ।'' -सीप
में
समन्दर, ग़ज़ल संग्रह
डॉ. रामसनेही
लाल
‘यायावर’ की
हिन्दी
ग़ज़ल
के शे’र-
[सन्ध्या डूबी
खिली
चांदनी/ लौट
नहीं
पाया
है
नथुआ, सोच
रही
माँ
खड़ी
द्वार
पर/ क्यों
न आज
आया
है
नथुआ]
को देखकर
यह
पता
लगा
पाना
कठिन
है
कि
यह
किसी
गीत
का
मुखड़ा
है
या
किसी
ग़ज़ल
का
मतला है।
इसमें
सन्ध्या
के
डूबने, चाँद
के
निकलने
के
बेशक
जीवंत
और
मार्मिक
बिम्ब
हैं।
इन्हीं
जीवंत-मार्मिक
बिम्बों
के
बीच
द्वार
पर
खड़ी
नथुआ
की
माँ
चिन्ताग्रस्त
है।
चिन्ता
का
कारण
नथुआ
का
देर
रात
तक
घर
न
आना
है।
माँ
के
मन
के
भीतर
‘क्यों’ की
‘शृंखलाबद्ध
चिन्ता-लड़ी’ बेटे
को
सकुशल
पाने
के
लिए
घटनाक्रम
को
आगे
बढ़ने
या
बढ़ाने
का
आभास
दे
रही
है।
अतः
स्पष्ट
है
कि
यह
पंक्तियाँ गीत
का
उम्दा
मुखड़ा
तो
हो
सकती
हैं, ग़ज़ल
का
मतला
शे’र
नहीं।
इसी पुस्तक
के
पृ. 75 पर
प्रकाशित
एक
ग़ज़ल
के
प्रारम्भ
के
दो
शेरों
की
शक़्ल
देखिए-
महामहिम श्रीमान! आपसे
क्या
कहिए, नवयुग
के
भगवान! आपसे
क्या
कहिए
पाँच साल
के
बाद
कुटी
तक
आ
पहुँचे, जय-जय
कृपानिधान
आपसे
क्या
कहिए।
हिन्दी
ग़ज़ल
के
उपरोक्त
दो
शे’रों
में
से
प्रथम
शे’र
में
महामहिम, श्रीमान, नवयुग
का
भगवान
कौन
है, जिस
पर
ग़ज़लकार
व्यंग्य
की
बौछार
कर
रहा
है? इस
प्रश्न
का
उत्तर
प्रथम
शे’र
में
नहीं
है, और
कहीं
है।
आइए
उसे
टटोलते
हैं।
यायावरजी
दूसरे
शे’र
में
क्या
बोलते
हैं। जिसे
वे
‘श्रीमान’, ‘महामहिम’, ‘नवयुग
का
भगवान’ बता
रहे
हैं, वह
इसी
शेर
में
पाँच
साल
के
बाद
आया
है, जिसकी
‘कृपानिधान’ कहकर
जय-जयकर
की
जा
रही
है।
भारतीय नेता
के
चरित्र
की
बखिया
उधेड़ती
ग़ज़ल
के
शे'र - [ महामहिम
श्रीमान! आपसे
क्या
कहिए, नवयुग
के
भगवान! आपसे
क्या
कहिए
पाँच
साल
के
बाद
कुटी
तक
आ
पहुँचे, जय-जय
कृपानिधन
आपसे
क्या
कहिए
] का कथन
माना
व्यंग्य-भरा
है, युगबोध
की
सही
पहचान
कराता
है
और
सत्योन्मुखी
है
किंतु
इस
ग़ज़ल
की
भी
शक़्ल
बता
रही
है
कि
यह
अपने
ग़ज़लपन
से
भयभीत
है।
कारण
यह
कि
यह
ग़ज़ल, ग़ज़ल
के
नाम
पर
कुकुरमुत्ते
की
तरह
उगता
हुआ
गीत
है।
दोनों
शे’रों
का
कथन
एक
दूसरे
का
चूंकि
पूरक
है, अतः
यह
ग़ज़ल
नहीं, ग़ज़ल
का
मुलम्मा
है, जिसे
गीत
पर
चढ़ा
दिया
गया
है।
इस लेख
के
बढ़ते
हुए
क्रम
के
आधार
पर
यदि
ग़ज़ल
के
ग़ज़लपन
को
हिन्दी
ग़ज़ल
के
साथ
जोड़कर
आकलन
किया
जाए
तो
स्पष्ट
है
कि
हिन्दी
में
ग़ज़ल
अपने
पारम्परिक
चरित्र
[ प्रेमालाप ] से
तो
काटी
ही
गयी
है, उसकी
बहरों
की
भी
शल्यक्रिया
कर
दी
गयी
है।
यही
नहीं
उसके
शे’रों
की
मुकम्मलबयानी
को
धूल
चटा
दी
गयी
है।
ग़ज़ल
के रदीफ
और काफिये
‘ग़ज़ल
के
चरित्र, ‘बहर
और
शे’र’ का
कचूमर
निकालने
के
बाद
ग़ज़ल
में
उसके
प्राण-तत्व
रदीफ
और
काफिया
और
शेष
रह
जाते
है।
हिन्दी
ग़ज़लकार
के
पैने
औजार
इन्हें
भी
काट-छाँट
कर
कैसा
रूप
दे
रहे
हैं, इस
कौतुक
का
‘लुक’ भी
ध्यान
से
देखने
योग्य
है-
किसी पद्य
के
चरणों
के
अन्त
में
जब
एक
जैसे
स्वर
सहित
अक्षर
आते
हैं, तब
इन
अक्षरों
की
आवृत्ति
को-वर्ण
मैत्री
को-‘तुक’ कहा
जाता
है।
तुक
का
दूसरा
नाम
अन्त्यानुप्रास
है।
उर्दू-फारसी
में
उसे
काफिया
कहा
गया
है।
[फने
शाइरी
] ले. अल्लामा
इख्लाक
दहलवी
के
अनुसार-वो
मुअय्यन
हुरूफ
[निश्चित अक्षर]
जो
मुख्तलिफ
भिन्न-भिन्न
अल्फाज
[शब्दों] में
मतला
और
बैत
[एक शेर]
के
हर
मिसरा
[पंक्ति] और
हर
शे’र
के
दूसरे
मिसरा
के
आखिर
में
मुकर्रर
[बार-बार]
आएं
और
मुस्तकिल
[स्थायीद्ध न
हों, काफिया
कहलाते
हैं।
-महावीर प्रसाद
मूकेश, ग़ज़ल
छन्द
चेतना, पृ.91
यदि ग़ज़ल
में
काफियों
की
व्यवस्था
को
देखें
तो
समान
स्वर
के
बदलाव
को
बाधित
न
करने
वाली
तुक
का
नाम
काफिया
है।
जबकि
रदीफ
वह
है
जो
शब्दों
के
रूप
में
काफिये
के
बाद
ज्यों
की
त्यों
दुहराया
जाता
है।
ग़ज़ल में
काफिये
की
बन्दिश
को
लेकर
काफी
सजग
रहना
पड़ता
है।
मतला
शे’र
के
दोनों
मिसरों
में
काफिया
मिलाया
अवश्य
जाता
है, लेकिन
आगे
के
शे’र
में
काफियों
का
रूप
कैसा
होगा, इस
विधान
का
निर्धारण
भी
मतला
ही
तय
करता
है।
मसलन, मतला
में
यदि
‘नदी’ की
तुक
‘सदी’ से
मिलायी
गयी
है
तो
इस
ग़ज़ल
के
आगे
के
उत्तम
काफिये
‘द्रौपदी’, 'लदी' ‘बदी’ आदि
ही
सम्भव
हैं।
यदि
मतला
में
‘नदी’ की
तुक
‘आदमी’ से
मिलायी
गयी
है
तो
आगे
के
शे’रों
में
‘रोशनी’, जि़न्दगी, ‘भली’, ‘सखी’ आदि
तुकें
आसानी
से
प्रयुक्त
हो
सकती
हैं।
काफिये के
रूप
में
समान
स्वर
के
बदलाव
का
आधार
यदि
‘आ’ है
तो
इसकी
तुक
‘ई’,‘ई’, ‘उ’, ‘उफ’, ‘ए’, ‘ऐ’ स्वर
के
साथ
बदलाव
नहीं
उलझाव
को
प्रकट
करेगी।
इसी
प्रकार
‘आकाश’ की
तुक
‘प्यास’, ‘मन’ की
तुक
‘प्रसन्न’, ‘हँसता’ की
तुक
‘खस्ता’
ग़ज़ल में
ओज
नहीं, अंधकार
भरेगी।
तुकों के
सधे
हुए
प्रयोग
से
ही
ग़ज़ल
का
ग़ज़लपन
सुरक्षित
रखा
जा
सकता
है।
ग़ज़ल
के
प्रारम्भ
के
दो
तीन
शेरों
में
‘हार’ की
तुक
‘प्यार’, ‘वार’ लाना
और
उसके
आगे
के
शेरों
में
‘याद’, ‘संवाद’ ‘दाद’ आदि
तुकों
को
क्रमबद्ध
तरीके
से
सजाना
हर
प्रकार
नियम
के
विरुद्ध है।
ग़ज़ल
के
काफियों
का
केवल
वही
रूप
शुद्ध है
जिसमें
समान
स्वर
के
आधार
पर
बदलाव
परिलक्षित
होता
हो।
हिन्दी में
प्रयुक्त
होने
वाले
काफियों
का
रूप
तो
देखिए
हिन्दी
ग़ज़लकार
‘रुठे’ की
तुक
‘फूटे’ और
‘मूठें’ निभा
रहा
है
[शेरजंग गर्ग, प्रसंगवश, फर. 94, पृ.116] और
इसे
श्रेष्ठ
हिन्दी
ग़ज़ल
बता
रहा
है।
हिंदी ग़ज़ल
में तुकों
यह
खेल
भले
ही
बेमेल
हो
लेकिन
इसमें
नकेल
डालने
को
कोई
तैयार
नहीं।
मतला
में
‘सुलाया’ की
तुक
‘जलाया’ लाने
के
बाद
‘लगाया’, ‘मुस्काया’ [डॉ. यायावर, सीप
में
संमदर, पृ.55] लाने
का
प्रावधान
हिन्दी
ग़ज़लकार
को
कथित
रूप
से
महान
बनाता
है
तो
बनाता
है।
यह
तो
हिन्दी
ग़ज़लकार
का
काफियों
से
ऐसा
नाता
है
जिसमें
तुक
‘रात’ के
साथ
‘हाथ’ मिल
रहे
हैं।
अनूठे
सृजन
के
कमल
खिल
रहे
हैं।
हिन्दी ग़ज़ल
के
सम्राट
विष्णुविराट
की
एक
ग़ज़ल
में
काफिया
और
रदीफ
किस
तकलीफ
से
गुजरते
हुए
प्रयुक्त
हुए
हैं, यह
तो
विराट
जानें, लेकिन
‘प्रसंगवश
फर. 94 पृ. 73’ पर
प्रकाशित
उनकी
ग़ज़ल
के
मतला
में
काफिया
‘सजाने’ और
‘जलाने’ तथा
रदीफ
दोनों मिसरों
में
‘वाले’ है, तो
अगले
शे'र में
तुक
के
रूप
में
शब्द
‘मकड़जाले’ ने
रदीफ
और
काफिये
की
व्यवस्था
को
सुबकने
और
सिसकने
पर
मजबूर
कर
दिया
है।
हिन्दी ग़ज़लकार
नित्यानंद
तुषार
की
प्रसंगवश पत्रिका
के
इसी
अंक
में
पृ.89 पर
संयुक्त
रदीफ-काफिये
में
लिखी
हुई
ग़ज़ल
प्रकाशित
है।
तुकों
के
विधान
के
रूप
में
लाये
गये
शब्दों
‘तीरगी’, ‘रोशनी’ ‘कभी’, ‘नमी’, ‘त्रासदी’, ‘घड़ी’ और
‘तभी’ को
यदि
मिलाकर
देखा
जाए
तो
ऐसा
भूत
नजर
आता
है, जिसके
दर्शन
कर
मन
थर्राता
है।
भूत
धमकाता
है, इसे
हिन्दीग़ज़ल
मानो।
इसमें
लापता
हुए
रदीफ-काफियों
को
ढूंढो-छानो।
नवोदित कैसे समझें क्या है हिंदी ग़ज़ल ?
हिन्दी में
ग़ज़ल
के
रदीफ-काफियों
के
ये
उन
दिग्गजों
के
उदाहरण
हैं, जो
हिन्दीग़ज़ल
लिखकर
ही
नहीं, अपने-अपने
तर्क
देकर
इसे
ऊँचाईयाँ
प्रदान
करना
चाहते
हैं।
उन
बेचारे
नवोदित
ग़ज़लकारों
के
बारे
में
क्या
कहना
जो
इनकी
छत्रछाया
में
ग़ज़ल
के
बारे
में
सोच-समझ
रहे
हैं
और
ग़ज़ल
लिख
रहे
हैं।
अस्तु! सार यही
है
कि
हिन्दी
ग़ज़ल
का
भविष्य
ग़ज़लकारों
की
दृष्टि
में भले
ही
उज्जवल
हो, लेकिन
हिन्दीग़ज़ल
की
इस
चकाचौंध ने
ग़ज़ल
के
पारम्परिक
चरित्र
के
अर्थ, उसकी
बहर , शे’र
की
स्वतंत्र
सत्ता, रदीफ-काफियों
को
अँधा बना
दिया
है।
और
इसी
अंधेपन
के
सहारे
ग़ज़ल
हिन्दी
में
अपने
ग़ज़लपन
को
खोज
रही
है।
हिन्दीग़ज़लकार
है
कि
अपने
इस
कारनामे
को
लेकर
अट्टहास
की
मुद्रा
में
है।
हिन्दी ग़ज़ल
में ग़ज़ल के नाम पर एक महारास हो रहा है | इस
महारास
का
अर्थ
यह
है
कि
यदि
हिंदी
में
ग़ज़ल
लिखनी
है
तो- ‘‘1.मतला
और
मक्ता
से
मुक्ति
पाओ
2. शे’र
की
स्वतंत्र
सत्ता
का
पत्ता
काट
दो
3. रूमानी
कथ्य
से
किनारा
कर
लो
4. सीमित
बहर अपनाओ
और
थोक
में
हिन्दी
छन्द
लाओ
5. गेयता
लयात्मकता
से
जितनी
जल्दी
हो
सके
अपना पिण्ड
छुड़ाओ।
[महेश अनघ, प्रसंगवश, फर. 39 ] अर्थ
यह
कि
ग़ज़ल
का
कचूमर
निकालकर
हिन्दी
ग़ज़ल
बनाओ।
सम्पर्क
.. 15\109, ईसानगर , निकट थाना सासनी गेट , अलीगढ..२०२००१
मोबा.
९६३४५५१६३०
No comments:
Post a Comment