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Saturday, 20 February 2016

ग़ज़ल के उरूज का भूत [रमेशराज का आलेख ]

ग़ज़ल के उरूज का भूत [ आलेख ]
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- रमेशराज
   गज़़ल़ अपनी सारी शर्तों के साथ हिन्दी में लिखी जाये। उसकी सार्थकता उसके सही शास्त्रीय पक्ष के साथ शिल्प और कथ्य से पहचानी, सराही और मानी जाए, इस बात पर किसे आपत्ति हो सकती है। लेकिन गज़़ल़ के नाम पर गज़़ल़ का कचूमर निकालकर उसे प्राणवान घोषित किया जाए, यह बात गज़़ल़ के संदर्भ में गले नहीं उतरती। ऐसी गज़़ल़ों को लेकर यदि सवाल या बवाल उठते हैं तो गज़़ल़कारों को अपनी कमजोरियों-त्रुटियों को स्वीकारने बजाय भ्रकुटियों को तानना नहीं चाहिए। ग़लती को मानने, उसे दूर करने का प्रयास ही ग़ज़ल की समझ को बढ़ायेगा। एक यही रास्ता है जो उजाले की ओर ले जाएगा।
   ग़ज़़ल-ज्ञान के प्रति अपनी असमर्थता को स्वीकारने के बावजूद गज़़ल़ के बारे में उफल-जुलूल बातें करने वालों की समझ की पोल उस ढोल की तरह है जो गुमकता तो खूब है लेकिन उसके भीतर खालीपन ही खालीपन है, जिसे भर दिया जाए तो गुमकना बन्द। ग़ज़़ल के प्रश्न पर ढोल की तरह गुमकते गज़़ल़कारों के बीच एक भारी-भरकम नाम है-श्री विज्ञानव्रत। सौगातके अप्रैल-2009 [गज़़ल़ विशेषांक] में पृ. 9-10 पर अपने लेख समकालीन हिन्दी गज़़ल़ के परिदृश्य से गुजरते हुएमें विज्ञानव्रत गज़़ल़ के उरूज के लेकर ऐसे उछलते हैं जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो। वे चीखते हुए ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं जो तर्कसंगत कतई नहीं है। उनके चिंतन-मनन का नमूने के तौर पर क्रन्दन देखिए-वे कहते हैं-‘‘ ....व्याकरण भाषा का होता है...’’
   काव्य को भाषा से काटकर केवल छन्द-शास्त्र के रूप में महिमामंडित करने वाले ग़ज़़ल के महान पंडित विज्ञानव्रतजी को इतना तो पता होना ही चाहिए कि यदि व्याकरण भाषा का होता है तो क्या काव्य, भाषा नहीं होता? काव्य-भाषा से ही तो व्याकरण का जन्म हुआ है। महर्षि पाणिनी या आधुनिक हिन्दी के पाणिनी आचार्य किशोरी दास का व्याकरण का इतिहास बिना काव्य को भाषा का आधार बनाये पूर्ण हुआ है? क्या उन्होंने काव्य की भाषा को नहीं छुआ है? काव्य का भाषा से या भाषा का काव्य से अंतरंग सम्बन्ध है। इन तथ्यों को दरकिनार करना क्या इतना आसान है? जबकि पूरी की पूरी पुरातन भाषा यहाँ तक कि व्याकरण की भाषा भी काव्यमय है।
   भले ही छन्द-शास्त्र या उरूज जानने से ही काव्य न बनता हो और न जिन लोगों ने ग़ज़़ल पर पी.एचडी या डी.लिट की हो, और न उनका ग़ज़़ल कहने या लिखने पर डॉक्टराना अधिकार हो, लेकिन विज्ञान व्रत का यह सवाल करना कि-‘‘ महर्षि बाल्मीकि, संत तुलसीदास, कालीदास, निराला, कबीर.. आदि-आदि क्या वैयाकरण थे?’’ बेहद हास्यास्पद और बेतुका है? इस सवाल के बदले यदि उन्होंने यह सवाल किया होता कि छन्द/ उरूज, भाषा के ज्ञान के बिना क्या काव्य की दो पंक्तियों का भी सृजन सम्भव है?’ तो यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण होता। कवि छन्द/उरूज/भाषा आदि के प्रति ज्ञानवान होने के कारण ही कविता लिख पाता है। जिस कवि को प्रयुक्त होने वाली भाषा के अंग-उपांग जैसे मुहावरे, प्रतीक, मिथक, सार्थक-निरर्थक शब्द, उपसर्ग, प्रत्यय, वर्तनी, शब्दार्थ, वाक्य-गठन, लिंग, वचन, कारक आदि का ज्ञान नहीं होगा, वह न तो काव्य में अच्छी उपमाएँ ला सकता है और न काव्य को रसाद्र बना सकता है। काव्य को काव्य-दोषों से वही बचा सकता है जो काव्य की भाषा के साथ-साथ छन्द-शास्त्र का ज्ञाता ही नहीं, मर्मज्ञ हो। इसलिए बकौल विज्ञान व्रत भले ही ‘‘काव्य या ग़ज़़ल केवल तकनीक का विषय नहीं, बल्कि एक क्रियेटिव और कल्पनाशील और संवेदनशील व्यक्ति की स्वतः स्फूर्ति कृति हो’’ लेकिन इस कल्पनाशीलता, संवेदनशीलता को काव्य की भाषा या छन्द-शास्त्र के नियमों से अलग नहीं किया जा सकता। इन नियमों को नजरंदाज करने के परिणाम कितने घातक होते हैं या हो सकते हैं, इसे किसी और की नहीं स्वयं विज्ञान व्रत की इसी विशेषांक के पृ. 12 पर प्रकाशित ग़ज़़ल के माध्यम से समझा जा सकता है। विज्ञानव्रत ने इस ग़ज़़ल में पांच शेरों का प्रयोग किया है। संयुक्त रदीफ-काफियों की [पता नहीं कही गयी या लिखी गयी] इस ग़ज़़ल के पर गौर फरमाएँ-
   सोलह मात्राओं या फैलुन, फैलुन, फैलुन फैलुनबह्र में पाँच शेरों के सुज्ञान या सम्पूर्ण विवेक के साथ कहीं या लिखी गयी इस ग़ज़़ल में स्वतः स्फूर्त अज्ञान का समावेश भी है। दो मतला शेरों के तुकांत पूछूंगा’, ‘ढूढूंगा’, ‘मिलूंगा’, ‘लगूंगातो शास्त्रीय दृष्टि से सही हैं किन्तु तीसरे शेर में निकलूंगाऔर पूर्व में मतला शेर के तुकांत मिलूंगाके बीच न तो काफिए का पता चलता है न रदीफ का। इसी तीसरे शेर के कथ्य में स्वतः स्फूर्ति का आलम यह है कि ग़ज़़लकार अभिसार की बातें करते-करते आयी हुई सुबह के बीच सूरज बनकर निकलने के लिए बेताब होने लगता है। जब सुबह आ ही गयी है तो सूरज भी निकला ही होगा, रोशनी बिखरी ही होगी, ऐसे में सूरज होकर निकलने का औचित्य क्या है? रात के अंधेरे को चीरने के लिये यदि यह सुकर्म किया गया होता तो यह स्वतः स्फूर्त शेर निस्संदेह सार्थकता ग्रहण कर लेता। प्रेमिका को बाँहों में भरकर प्रेमिका के सामने सूरज और रोशनी का यह बखान ग़ज़़लकार विज्ञान व्रत को महान बनाता है तो बनाता होगा क्योंकि बकौल उन्हीं के-‘‘कवि रचना करते समय अपना शास्त्र भी गढ़ता है, वह लकीर का फकीर नहीं होता। वह किसी तथाकथित साहिबे-उरुज का गुलाम नहीं।’’
   उरूज के साहिबों, उस्तादों या गुरुओं से नाक-भौं सिकोड़ने वाले ग़ज़़लकार विज्ञानव्रत की दृष्टि में बाल्मीकि और देवेन्द्र शर्मा इन्द्रछन्दशास्त्र के जानकार नहीं थे,’ तो क्या इस कथन के आधार पर यह मान लिया जाये कि विज्ञान व्रत भी छन्द शास़्त्र का ज्ञान नहीं रखते हैं, फिर भी उनका स्वतः स्फूर्त अज्ञान उन्हें काव्य के क्षेत्र में लगातार ऊँचाइयाँ प्रदान कर रहा है। उनकी ग़ज़़लों में बिना तर्कशीलता के ही संवेदनशीलता, कल्पनाशीलता का ओज भर रहा है। क्या ग़ज़़ल कहने या लिखने की उनकी सारी ऊर्जा एक विवेकहीनता का परिणाम है? लेख समकालीन हिन्दी ग़ज़़ल के परिदृश्य से गुजरते हुएको पढ़कर यह तो कतई ध्वनित नहीं होता कि विज्ञान व्रत काव्य, छंद, भाषा या व्याकरण के ज्ञाता नहीं हैं । उन्हें पाणिनी की पुस्तक सिद्धांत कौमुदीकी जानकारी है। वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा की मौलिकता की धर से प्यार करते हैं। वे अपनी बात को पुष्ट करने के लिए बाणभट्ट, कालीदास, भवभूति, ठाकुर, रैदास, आर्यभट्ट, लीलावती, श्रीनिवास, बल्लाल आदि के उदाहरण लेकर मैदान में उतरते हैं। ऐसा वे क्यों करते हैं? इस सवाल का उत्तर भले ही जटिल लगे, पर है। बात सिर्फ इतनी है कि उन्हें आतंकित करता हुआ एक डर है, जिसका नाम है उरूज। उरूज का सम्बन्ध् उर्दू में ग़ज़ल लिखने और ग़ज़़लकार से है। किंतु विज्ञानव्रतजी हिंदी-छंदों में ग़ज़ल कहते या लिखते हैं। सम्भवतः हिन्दी-छन्दों में ग़ज़़ल कहने या लिखने के व्यामोह ने ही उनसे ऐसा कहने के लिये प्रेरित किया है।
   चूंकि वे हिन्दी में ग़ज़़लों को लिखते या कहते हैं और हिन्दी छन्दों का बह्र से खारिज होना स्वाभाविक है। अतः उरूज को लेकर वे उर्दू के जानकारों के बीच अपनी बात को चाकू की तरह तानते हैं। उन्हें आतंकित करते हुए कहते हैं-‘‘छन्द शास्त्र/ उरूज जानने से ही काव्य बनता है? या फिर  कवि को बस छंदशास्त्र का ज्ञान होना चाहिए? लोगों ने ग़ज़़लों में पीएच.डी. या डी.लिट. की है। क्या यह डॉक्टर लोग अच्छे ग़ज़़लकार हैं? इतिहास या ज्ञान परम्परा का निर्वाह किसी हद तक वांछित है, किन्तु क्या ग़ज़़ल का इतिहास पढ़कर ही ग़ज़़लगो बना जा सकता है?’’
   श्री विज्ञान व्रत की एक दलील ये भी है-‘‘ उरूज, तकनीक के चलते एक परिधि में  बाँध सकता है, वज़्न, अरकान सिखा या बता सकता है, ग़ज़़लकार नहीं बना सकता।’’
   देखा जाये तो उपरोक्त सारी दलीलें बीरबल के उस हवामहल की तरह हैं जिसमें गारा लाओ, पानी लाओ तो चिल्लाया जा रहा है। किंतु बिना ईंट, पत्थर, बालू, सीमेंट, पानी अर्थात् उरूज के, ग़ज़़ल का असल रूप कैसा होगा, इस प्रश्न पर विचार नहीं किया जा रहा है?
   उरूज के जानकार आलोचक या समीक्षकों का कार्य ग़ज़़ल को ग़ज़़ल की कसौटी पर जाँचना या परखना होता है, ग़ज़़लें कहना या लिखना नहीं। अगर ग़ज़़ल के उरूज के जानकार उस ग़ज़़ल को बीमार घोषित कर देते हैं, जो ग़ज़़ल की आवश्यक शर्तों जैसे मतला, मक्ता, रदीफ-काफिया, कथ्य, बह्र की दृष्टि से कमजोर हैं, तो इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
   ग़ज़़ल कहने का ही अर्थ यह है कि उसके मूल शास्त्रीय  स्त्रोतों, शर्तों तक पहुँचा जाए। ग़ज़़ल का महल बीरबल के हवामहल की तरह खड़ा नहीं किया जाना चाहिए। इस सत्य या तथ्य से परहेज करने वाले विज्ञान व्रत भी लेख के अन्त में स्वतः स्फूर्त होकर, उरूज के जानकारों के आलोचना कर्म को गरियाते-गरियाते खुद हिन्दी ग़ज़़ल के आलोचक बन जाते हैं। वे ग़ज़ल के बारे में एक जानकारी देते हैं-‘‘ग़ज़़लकार जरा दुष्यंत की सभी ग़ज़़लों को कसौटी पर कसवाएँ/ कसवाकर देखें. जिस उरूज को और जिन उर्दू शायरों को हम सर-माथे पर रखते हैं, जरा पूछें कि उनके इस थोपे हुए हीरो का क्या स्थान है ग़ज़़ल में?’’
   हिन्दी में बेवज़्न बह्रों, गलत रदीफ-काफियों के प्रयोगों, परम्परागत कथ्य से भटकाव, ग़ज़़ल का गीतनुमा आकार, मतला-मक्ता शेरों का अभाव घाव तो पैदा करेगा ही। वह घाव विज्ञान व्रत को टीस देता है तो दे, इसमें हम और आप क्या कर सकते हैं। हिन्दी वालों को आतंकित करने वाला भूत केवल उरूज ही नहीं है। ऐसे कई अन्य भूत भी हैं जो ग़ज़़ल के शास्त्रीय  सरोकार से जुड़े हैं। इन भूतों से पिण्ड छुड़ाने का एक ही रास्ता है या तो हिदी वाले ग़ज़़लें लिखना छोड़ दें या ग़ज़़ल के शास्त्रीय सरोकारों को आत्मसात करें।
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+रमेशराज , 15/109 . ईसानगर , अलीगढ
मोबा.-9634551630

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