" ये जंगें लम्बी खिंचनी हैं ", रमेशराज की तेवरियाँ
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|| रमेशराज की तेवरी ||
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आजकल दीवार-सा कुछ भी नहीं
आजकल दीवार-सा कुछ भी नहीं
अब हमारे बीच रंजिश-प्यार-सा कुछ भी नहीं।
कह रहा वो कर हवाले आग के
बर्फ के ऊपर रखा अंगार-सा कुछ भी नहीं।
हो नहीं सकती कभी घायल हवा
तू भले तलवार है, तलवार-सा कुछ भी नहीं।
बल्ब-सी तेरी दलीलें हैं भले
किन्तु तेरे पास विद्युत-तार-सा कुछ भी नहीं।
एक आशय लय-भरा परिचय-भरा
जब मिला इस बार तो उस बार-सा कुछ भी नहीं।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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बाहर-बाहर सब सच्चे हैं
बाहर-बाहर सब सच्चे हैं
भीतर-भीत खोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
सारे नेता छल-विक्रेता
दें किसको हम वोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
ओढ़ लिये दुःख ऐसे हमने
जैसे ओवरकोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
लाले पड़े इधर रोटी के
वे चरते अखरोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
चित भी उनकी-पट भी उनकी
ऐसी चलते गोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
नहीं दाल सुख की गलती है
चाहे जितना घोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
यहाँ न पुजता खरा रुपइया
पुजते खोटे नोट सखी! मिलें चोट-दर-चोट सखी!
|| रमेशराज की तेवरी ||
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वो मुझे निश्चिन्त ऐसे कर गया
वो मुझे निश्चिन्त ऐसे कर गया
आँख में आँसू, हृदय में प्यार से डर भर गया।
आजतक चर्चा न उन पै हो सकी
जिन तनावों को लिये मैं घर गया-बाहर गया।
तीर ने क्रन्दन किसी का कब सुना
चाकुओं के कान तक कब याचना का स्वर गया।
कान में शब्दों की मिसरी घोल दी
इस तरह अंधे नयन में नूर का अक्षर गया।
आँख जब भी फेर ली तर मेघ ने
हर नदी के तब बदन में रेत का मंजर गया।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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कैसा किसका स्वागत भाई
कैसा किसका स्वागत भाई
सब में तंग जहनियत रे! अब आफत ही आफत रे।।
सुख-संदेश हमारे सारे
कोने फटे हुए ख़त रे! अब आफत ही आफत रे।।
जहर सरीखा मन को करता
ऐसा मद का अमृत रे! अब आफत ही आफत रे।।
पड़े स्वयं में छत होते हैं
लेकिन आज दिखे नत रे! अब आफत ही आफत रे।।
ये जंगें लम्बी खिंचनी हैं
बाँधे रखना हिम्मत रे! अब आफत ही आफत रे।।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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वो हमारी दोस्ती यूँ जी गया
वो हमारी दोस्ती यूँ जी गया
जि़न्दगी-भर की सुधा को एक पल में पी गया।
मैं बताशे की तरह जीया नहीं
जल के मैं अस्तित्व में जल की तरह मिल ही गया।
मैं नदी की धार, सागर का उफाँ
फर्क क्या पड़ना अगर में तेग से कट भी गया।
है यही अफसोस नक्कासी कहा
मखमली कालीन पर वो चीथड़े को सी गया।
गाँव की पहचान गायब हो गयी
एक भोला आचरण जब भी कभी दिल्ली गया।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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जितने वे शालीन साथियो!
जितने वे शालीन साथियो!
उतने ही संगीन सुनो! अब तो नया विकल्प चुनो।।
चिन्तन के घोड़ों पर कस लो
संकल्पों की जीन सुनो! अब तो नया विकल्प चुनो।।
जख्मी करते हर पक्षी को
वे हैं करुणाहीन सुनो! अब तो नया विकल्प चुनो।।
छल-प्रपंच के बल सारे खल
कुर्सी पर आसीन सुनो! अब तो नया विकल्प चुनो।।
हम बनकर अर्जुन बींधेंगे
इस निजाम की मीन सुनो! अब तो नया विकल्प चुनो।।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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वो अहिंसा-भक्त आया पास में
वो अहिंसा-भक्त आया पास में
खून पीने की तमन्ना बाँध अपनी प्यास में।
अधर पर उसके हँसी थी मित्रवत्
छोड़कर सब को गया जो दर्द के अनुप्रास में।
अब खुशी या रंज से हम क्यों भरें
फर्क जब कोई नहीं है भोग या उपवास में।
आज चिन्ता से भरे हम इसलिए
स्वाभिमानी आचरण बदला हुआ है दास में।
हर खुशी मुरझा गयी, मन वेदना
महँक फूलों-सी मिलेगी क्या भला संत्रास में।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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आये दिन अब काले बहिना
आये दिन अब काले बहिना
भूख-गरीबी वाले री! पड़े दुःखों से पाले री!!
बात करे क्या अँधियारों की
डसते आज उजाले री! पड़े दुःखों से पाले री!!
सत्य बोलने पर हैं अब तो
हर जुबान पर ताले री! पड़े दुःखों से पाले री!!
हर शासन ने जन की गर्दन
केवल फंदे डाले री! पड़े दुःखों से पाले री!!
कर तू चोट इस तरह बहिना
ये सिंहासन हाले री! पड़े दुःखों से पाले री!!
|| रमेशराज की तेवरी ||
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हर किसी भूचाल में जि़न्दा रहे
हर किसी भूचाल में जि़न्दा रहे
प्यार खुशबू की तरह हर हाल में जि़न्दा रहे।
मगरमच्छों से लड़ेगी एक दिन
एक मछली ही सही पर ताल में जि़न्दा रहे।
जो खुशी है टिटिमाते दीप-सी
अब अगर ब्याही गयी, ससुराल में जि़न्दा रहे।
चाबुकों की मार के हम बीच हैं
अश्व जैसे पाँव अपने नाल में जि़न्दा रहे।
मेघ बनकर इसलिए हम आ गये
फूल में रँग औ’ हरापन डाल में जि़न्दा रहे।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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बड़े बुरे हालात सखी री!
बड़े बुरे हालात सखी री!
रहबर करते घात सखी! कटे न दुःख की रात सखी!!
आज वतन की रक्षा करने
डाकू हैं तैनात सखी! कटे न दुःख की रात सखी!!
सत्ता की साजिश के चाकू
गोद रहे हर गात सखी! कटे न दुःख की रात सखी!!
आज देश में बे-ईमानी
है नरसी का भात सखी! कटे न दुःख की रात सखी!!
ये वसंत, कैसा वसंत है?
सूखे टहनी-पात सखी! कटे न दुःख की रात सखी!!
|| रमेशराज की तेवरी ||
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अश्रु के आभास ने अपना पता
अश्रु के आभास ने अपना पता
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता।
सादगी, इस प्यार को हम क्या कहें!
खुर्पियों को लिख दिया है घास ने अपना पता।
मरुथलों में आजतक भटके न जो
उन मृगों को अब बताया प्यास ने अपना पता।
फूल-तितली अब न इसके पास हैं
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता।
बात ऐसी! चौंकना मुझको पड़ा
चीख़ के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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पहले से ही कठिन राह थी
पहले से ही कठिन राह थी
और हुई मुश्किल अब रे! क्रान्ति रचेगा तू कब रे!!
इतनी बेचैनी मन-भीतर
मन जाता छिल-छिल अब रे! क्रान्ति रचेगा तू कब रे!
बनकर मोम रोशनी देता
गलकर मन तिल-तिल अब रे! क्रान्ति रचेगा तू कब रे!
बूँद-बूँद को तरस रहे हैं
नदियों के साहिल अब रे! क्रान्ति रचेगा तू कब रे!
पत्थर धड़क रहे सीनों में
भावुक रहे न दिल अब रे! क्रान्ति रचेगा तू कब रे!
|| रमेशराज की तेवरी ||
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अधर से मुस्कान पल-भर में गयी
अधर से मुस्कान पल-भर में गयी
जि़न्दगी तुझसे रही पहचान पल-भर में गयी।
आस्था-उम्मीद की-विश्वास की
एक नन्हीं जान थी वो जान पल-भर में गयी।
तम को आकर चीरता था दीप जो
घुप अँधेरे में उसी की आन पल-भर में गयी।
स्वर्ण जैसे आचरण का क्या करें
अब कसौटी पर रखा तो शान पल-भर में गयी।
छा गये जब से विदेशी मेघ कुछ
इस सदी की-हर नदी की तान पल-भर में गयी।
|| रमेशराज की तेवरी ||
तक्षक तभी खौफ में होंगे
पैदा हो जनमेजय रे! करना खत्म हमें भय रे।।
ढूँढ रहे हैं हम चिंगारी
कुछ तो अपना आशय रे! करना खत्म हमें भय रे।।
आदमखोर बना डालेगा
आचरणों का ये क्षय रे! करना खत्म हमें भय रे।।
और-और तू और देखना
व्यभिचारों का विनिमय रे! करना खत्म हमें भय रे।।
ज्वालामुखियों को फटना है
आज नहीं तो कल तय रे! करना खत्म हमें भय रे।।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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रंग सब निस्सार बनकर रह गये
रंग सब निस्सार बनकर रह गये
फूल सारे पेड़ के अब खार बनकर रह गये।
प्यार उनसे ही जताते हम रहे
जो हमारे बीच बस दीवार बनकर रह गये।
जो रहे हैं दीप-से जलते कभी
घुप अँधेरे में सभी बेजार बनकर रह गये।
बात अमृत-सी समय ने छीन ली
शब्द सारे अम्ल या फिर क्षार बनकर रह गये।
कौन देगा जि़न्दगी को सांत्वना
आँख के आँसू सभी अंगार बनकर रह गये।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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कितनी बीतीं सदियाँ प्यारे
कितनी बीतीं सदियाँ प्यारे
कटीं नहीं हथकडि़याँ रे! बीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!
उनके पेटों की खातिर हम
कब तक बनें सब्जियाँ रे! बीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!
शब्दों के भीतर कुछ जलती
रखी न गयीं तीलियाँ रे! बीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!
हम अब खाते कब रोटी
खातीं हमें रोटियाँ रे! बीतीं यूँही सदियाँ रे!!
सर से पाँवों पर आनी थीं
खल की सबल टोपियाँ रे! बीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!
|| रमेशराज की तेवरी ||
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खोलनी थीं सुख के घर की साँकलें
खोलनी थीं सुख के घर की साँकलें
खोल आये आप जाने कब किधर की साँकलें।
मित्रवर! खामोशियों को तोड़ते
टूट जाती फिर सभी ये ठोस डर की साँकलें।
गाँव जकड़ेंगे न जाने अब किसे
गाँव को जकड़े हुए हैं अब शहर की साँकलें।
क्या मिलेंगी रोशनी की मंजिलें
आपके जब साथ हैं अंधे सफर की साँकलें।
तैरने की अब कला तुम सीख लो
तब कहीं बेकार होंगी ये भँवर की साँकलें।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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गाल बजा मत खाली प्यारे
गाल बजा मत खाली प्यारे
ला आँखों में लाली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
सिर्फ फायलों में आयी है
अब तक हर खुशहाली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
इन्कलाब का मतलब है अब
उगले आग दुनाली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
अपने हिस्से में आयी बस
अब तक विष की प्याली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
खायी रोटी रख हाथों पर
कहाँ मिली है थाली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
आज सियासी बातों पर तू
पीट न ऐसे ताली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
सूरज से दीपक अच्छा है
सुबह जहाँ हो काली रे! जीवन जैसे गाली रे!!
|| रमेशराज की तेवरी ||
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अश्रु-भीगे त्रास को जि़न्दा रखा
अश्रु-भीगे त्रास को जि़न्दा रखा
इस तरह से आग के इतिहास को जि़न्दा रखा।
कल मिले जल-बूँद मोती की तरह
इसलिए ही सीपियों-सी आस को जि़न्दा रखा।
सुख-भरी लोकोक्ति-सा हर दुःख बने
इसलिए हर दर्द के अनुप्रास को जि़न्दा रखा।
आज माना मैं उलझ तम में गया
धूप ने कब धूप के आभास को जिन्दा रखा?
क्या सुनानी बदगुमानी की कथा
सहज मन से हम मिले, उल्लास को जिन्दा रखा।
|| रमेशराज की तेवरी ||
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आहत अबलाएँ बँगले में
आहत अबलाएँ बँगले में
ये चर्चाएँ बँगले में, करुण-कथाएँ बँगले में।
इज्जत वाले नारी का तन
हर दिन खाएँ बँगले में, करुण-कथाएँ बँगले में।
भूख बेबसी निर्धनता की
हैं कविताएँ बँगले में, करुण-कथाएँ बँगले में|
बेच रही हैं स्वाभिमान को
बेच रही हैं स्वाभिमान को
अब कन्याएँ बँगले में, करुण-कथाएँ बँगले में।
बाहर-बाहर दिखे रौशनी
तम मुस्काएँ बँगले में, करुण-कथाएँ बँगले में।
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+रमेशराज,15 / 109 , ईसानगर, अलीगढ
मो.9634551630
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