[ पुस्तक -' होगा
वक़्त दबंग ' से लोकशैली में रमेशराज की तेवरियाँ ]
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रमेशराज
की तेवरी ...1.
भले हाल है तंग, बलम के सँग मैं हूँ
साथ लडिंगे जंग, बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
नभ को नव संकल्प हमारे छूएँगे
हम हैं डोर-पतंग,
बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
मैं हूँ अगर कुदाल, हथौड़ा जैसे वे
लायें सुख की गंग, बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
सीधा-सादा देख न ऐसे तू गुर्रा
रंग दिखा मत नंग, बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
दोनों ने मेहनत की, ले आये आटा
घर में भरी उमंग, बलम के
सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
आज नहीं तो कल ये निश्चित सुधरेगी
भले व्यवस्था भंग, बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
गाये हमने गीत सदा ही कर में ले
संघर्षों की चंग, बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
करें सामना विहँस, भरें क्यों हम डर से
होगा वक़्त दबंग, बलम के सँग मैं हूँ। क्रान्ति का रँग मैं हूँ।।
रमेशराज की तेवरी ...2
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मोकूँ अपने साथ लगाय लै तू सैंया
घर के बिगरे काम बनाय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।।
बने रहें गाड़ी के हम दोनों पहिये
जीवन-भर सौगंध निभाय लै
तू सैंया। दुःखी मत हो सैंया।।
थक जाये तू अगर, बोझ मैं बाँटूंगी
दुःखदर्दों की गाँठ उठाय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।।
तेरी हिम्मत को बल्ली बन साधू मैं
घर की डगमग नाव बचाय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।।
खरौ उतरनौ तोय कि मन के कुन्दन को
संघर्षों की आग तपाय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।।
उगौ खत्तुआ सब कुछ चौपट कर देगा
खुशियों का ये खेत नराय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।।
केवल अपने पास कुठरिया फूटी-सी
जा के ऊपर छान छबाय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।।
मैं डालूंगी बीज, थाम तू हल कर में
चल सरसों-सी फसल
उगाय लै तू सैंया। दुःखी मत हो सैंया।।
यम के जैसे दूत न जीने देते जो
कर में लाठी थाम गिराय लै तू सैंया। दुःखी मत हो
सैंया।
रमेशराज की तेवरी ...3.
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कर थामी पतवार सनम तुम-हम मिलकर
करनी नैया पार सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
जीवन की हर जंग, लड़ाई सिस्टम से
जीतेंगे इस बार सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
हिंसा और घृणा धधकी है हर मन में
बुझा रहे अंगार सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
महँगाई के तीर, समय के भालों की
खत्म करें बौछार सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
करे न और अभाव घाव अपने मन में
घर में भरें बहार सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
जब तक जग चिन्तित है, गम में डूब रहा
खोजेंगे उपचार सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
तुमने खायी चोट, आँख मेरी रोयी
भोंगे सच्चा प्यार, सनम तुम-हम मिलकर। लड़ें दुःख से हँसकर।।
रमेशराज की तेवरी ...4.
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हाय-हाय डकराय बोलियो
बाबुल से
बँधी बधिक घर गाय बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल
के।।
ऐसी बैरन सास, टाँग मेरी
तोड़ी
मो पै चलौ न जाय बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल
के।।
लै मिट्टी कौ तेल छिड़क देवर बोल्यौ
‘तो कूँ दऊँ जलाय’, बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल के।।
जो गहने मइया ने बनवाये मोकूँ
वे भी लिये छुपाय बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल
के।।
‘स्कूटर ला साथ नहीं तो रह पीहर’
कहते सब गुर्राय, बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल के।।
कोल्हू कौ ज्यों बैल, गधा ज्यों धोबी कौ
मोकूँ लेत थकाय, बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल के।।
ननद संग अपशब्द बोलती जेठानी
ससुर मंद मुसकाय बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल
के।।
बनी जिन्दगी आज तुम्हारी बिटिया की
चीखों का पर्याय, बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल के।।
लाल-लाल करि आँख जेठ
सँग वे भी अब
बात करें चिल्लाय, बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल के।।
मैं पिंजरे को तोड़ भागि जाऊँ कित कूँ
सूझे नहीं उपाय, बोलियो बाबुल से। बात कहियो खुल के।।
रमेशराज की तेवरी ...5.
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कहाँ गयी गल-माल,
हाथ सूने-सूने?
तन पै साड़ी फटी-फटी कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
सास-ननद ने बता रखी
कैसे लाड़ो!
बहती नैनन-बीच नदी
कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
फ्रिज, स्कूटर, घड़ी, चैन हमने दीने
फिर इतनी तकरार बढ़ी कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
बता जिठानी-जेठ कमीने
क्या इतने
तैंने उनकी मार सही कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
कर कमरे में बंद तेल जब छिड़का था
भभक उठी जब आग, बची कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
पढ़ा-लिखा दामाद
नौकरीपेशा है
मिल पायी ना तुझे खुशी कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
जब भेजी ससुराल, फूल-सी काया थी
अब पत्थर-सम सख्त
हुई कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
पता न था वे लोग लालची दौलत के
केर, बेर के संग निभी
कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
कल तेरी ससुराल जाय मैं पूछूंगा
दिखें बदन पर नील, जली कैसे लाड़ो! दुःखी कैसे लाड़ो!!
रमेशराज की तेवरी ...6.
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पहले से ही झेल रहे हम महँगाई के वार
बलम कहूँ सच, होली का
उत्साह न अबकी बार। बढ़ी अब महँगाई की मार।।
फ्रिज में रखे रसोई के मत लाल टमाटर मार
इनके बिना मने कैसे ये होली का त्योहार। बढ़ी अब
महँगाई की मार।।
पानी भरी बालटी में मत ऐसे चीनी घोल
कैसे होय खीर मीठी और चाय जायकेदार। बढ़ी अब महँगाई
की मार।।
मेरे तन पर होली में मत ऐसे आटा फैंक
बबली, बंटी, आशुतोष हों रोटी को लाचार। बढ़ी अब महँगाई की मार।।
पकी पतीली की सब्जी मत ऐसे बलम उलीच
सुन मेरे भरतार न घर में चटनी और अचार। बढ़ी अब
महँगाई की मार।।
होली उसे सुहाय कि जिसकी भारी-भरकम आय
और भिगो मत साँवरिया अब आबै तुरंत बुखार। बढ़ी अब
महँगाई की मार।।
लिख कविताएँ होली की, बस यूँ ही होली खेल
अब तो रुचे किताबों में ही होली का त्योहार। बढ़ी
अब महँगाई की मार।।
रमेशराज की तेवरी ...7.
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महँगाई घुसि आयी तेरे चौका-चूल्हा-आँगन में
सुन इसका उपचार नहीं है काशी या वृन्दावन में। आग
लगै जा सिस्टम में।।
पहले पजरी दाल, स्वाह अब हल्दी-चीनी-मिसरी है
क्या सब्जी क्या तेल, किल्लतें बढ़ीं दूध-घी-माखन
में। आग लगै जा सिस्टम में।।
तू बिल्ली-सा बैठि
मानता न्याय तेरे हक़ में होगा
रोटी को लेकर इस युग में न्याय कहाँ बन्दरपन में।
आग लगै जा सिस्टम में।।
ये खरगोश राह में प्यारे अबकी बार न सोयेगा
अगर जीतनी दौड़ रे कछुए ! फुर्ती ला अपने तन में। आग लगै जा सिस्टम में।।
जल की एक बूँद भी तुझको मिले नहीं प्यासे कउए
वे कंकड़ ही पीयें जल को तू डाले जो बर्तन में। आग
लगै जा सिस्टम में।।
जाने मत दे व्यर्थ इन्हें तू फैंक पाप की लंका पर
धढके जो अंगार क्रान्ति के आज तेरे अन्तर्मन में।
आग लगै जा सिस्टम में।।
रमेशराज की तेवरी ...8.
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अगर नहीं है बलम व्यवस्था तो पै गाटर-पटिया की
मेरी बात मान ले अब तू छत्ति तान लै टटिया की।
चोरी की बिजली से होवै और गुजारौ कब तक रे
ज्यादा दिन तक छुपी रहै सुन ये तरकीब न कटिया की।
सो जाएंगे हम-तुम दोनों
बिछा चद्दरा धरती पै
अपने घर दामाद पधारौ करि जुगाड़ तू खटिया की।
बुरे दिनों का हल शराब से क्या निकला, क्या निकलेगा
फिर पी आयौ बालम पउआ, तैंने हरकत घटिया की।
सोनी, मोनू, गुल्लू, गोली के सँग तू है अरु मैं भी
बता करैगो फाँकें कितनी खरबूजे की बटिया की ??
रमेशराज की वर्णिक छंद में तेवरी ...9.
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खउअन के बीच बड़े खउआ लोग आज हैं
अपने ही पेट के भरउआ लोग आज हैं। त्यागे लोक-लाज हैं।।
उलझें न धींग ते, न नोकदार सींग ते
सीधे-सादे लोगन कूँ हउआ
लोग आज हैं। त्यागे लोक-लाज हैं।।
तितली, चकोर, मोर, कोयलों-से गुन दूर
चील, वक, बाज, गिद्ध, कउआ लोग आज हैं।
त्यागे लोक-लाज हैं।।
दिखतौ सुराज आज कोढ़ बीच जैसे खाज
झूठ को ही माथ के नवउआ लोग आज हैं। त्यागे लोक-लाज हैं।।
गली-गली झूमि रहीं
बोतलें सुरा-भरी
सिर्फ दिखें अद्धे और पउआ लोग आज हैं। त्यागे लोक-लाज हैं।।
रमेशराज की [बारहमासी शैली में] तेवरी ...10
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शीत भरी जनवरी काँपता थर-थर-थर ‘होरी’
बिना रजाई के ‘धनिया’ घर आफत-सी आयी।
नये बजट के साथ फरवरी और वित्तमंत्री
नये करों के बोझ तले फिर जनता घबरायी।
आया फागुन माह मनी यूँ तो घर-घर होली
पहले-सा उल्लास कहीं भी
पड़ा न दिखलायी।
अप्रिल माह उछाल भरी सोने ने-चाँदी ने
पूछ न एक अँगूठी हमने कैसे बनवायी।
माह मई में महँगाई की लूओं ने मारा
सौ रुपये की दाल किलो-भर घर सजनी लायी।
जून महीना खूब पसीना झल्लन का छूटा
बिन बिजली के पंखा झलते रैना ढुलकायी।
माह जुलाई पड़ी फुहारें मन पर यूँ दुःख की
मन के भीतर पीर अभावों की झट हरियायी।
आजादी के इत अगस्त में झंडे लहरायें
उधर न करता चपरासी तक जन की सुनवायी।
माह सितंबर मन के अम्बर सूख गये जलधर
एक नया अवसाद लिये फिर नव उलझन छायी।
अक्टूबर आया जाड़े की चिंताएँ लेकर
‘क्या होगा इस साल रजाई अगर न भर पायी’?
माह नवम्बर में दीवाली रही अमीरों की
निर्धन को तो बनी लक्ष्मी फिर से दुःखदायी।
पुनः दिसम्बर, अन्त साल
का, खुशी न दे पाया
जो जागी थी मन में आशा वो भी मुरझायी |
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रमेशराज , 15/109 ईसानगर ,
अलीगढ -202001
मो.-9634551630
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