‘ बदल व्यवस्था को
’ [ रमेशराज की तेवरियाँ ]
रमेशराज की तेवरी....1.
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जाने क्या हो गया समय के मुँदे हुए हैं नैन
मानव से मानव परिचय की आँख नहीं खुलती।
अंधों-सम्मुख उषा-भरी सच्चाई करे बयान
इस प्रकरण पर क्यों ‘संजय’ की आँख नहीं खुलती।
कर्कश स्वर के महानाद में बीती उम्र तमाम
मुद्दत से अब मीठी लय की आँख नहीं खुलती।
अहंकार में-उन्मादों में संवादित इन्सान
सद्भावों के सद् आशय की आँख नहीं खुलती।
खिलने से पहले मुरझाया फूलों-भरा विधान
कलियों के तन-मन में वय की आँख नहीं खुलती।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....2.
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मन पर रख पत्थर कोने में
रोये अक्सर कोने में
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महफिल-महफिल सभी हँसे पर
नैन गये भर कोने में।
चुपके-चुपके शीलभंग है
बल इज्जत पर कोने में।
एक अनैतिक गर्भधारिणी
जख्मों से तर कोने में, ।
अक्सर कुछ आहत सोचों की
छलकी गागर कोने में।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....3.
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कभी लिखा मटमैली सन्ध्या, कभी खिली-सी धूप
अरी जि़न्दगी हमने तुझको क्या-क्या नाम दिये।
तूफानों ने नाव डुबोयी इसका सबको ज्ञान
लेकिन लोगों ने हमको सारे इल्जाम दिये।
सुख आया जीवन में उसने बोला ‘फुल-स्टॉप’
दुःख-दर्दों ने किन्तु उम्र-भर अल्प विराम दिये।
इस निजाम में इन्कलाब को भूल गये हैं लोग
नयी सभ्यता ने इस युग को बस ‘खय्याम’ दिये।
आज उदारीकरण कर रहा जन-जन को कंगाल
चतुर विदेशी छल ने क्रन्दन के पैगाम दिये।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....4.
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कितनी क्षत-विक्षत बिस्तर पर
‘धनिया’ आहत बिस्तर पर।
विवश देह का रति-रस लेने
व्यभिचारी रत बिस्तर पर।
चीरहरण का चरण शुरू है
लुटनी इज्जत बिस्तर पर।
आँखों में शोले हैं लेकिन
अब काया नत बिस्तर पर।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....5.
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करते रहे रात से हम उजियारे की उम्मीद
सत्ताएँ पूजी हमने हर बार अँधेरों की।
इतने हुए उदार हार हम आये सब कुछ यार
लगी सुहानी बात हमें बदजात कुबेरों की।
जहाँ छतों पर बच्चे अपने लेकर खड़े पतंग
हमने हँसकर ईंट निकालीं उन्हीं मुँडेरों की।
जिन खेतों से पाते थे हम गेंहू-जौ की बाल
हमने रोपी पौध वहाँ इस बार कनेरों की।
अधिनायक-खलनायक के हम करते हैं गुणगान
तारीफें हम लोग कर रहे खूनी शेरों की
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+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....6.
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तन घायल हैं मन घायल हैं
रति के सम्बोधन घायल-घायल।
उखड़ी-उखड़ी हर साँस मिले
सच के अब लोचन घायल-घायल।
परिवार नहीं परिवार रहे
रिश्ते घर आँगन घायल-घायल।
अधरों पर है गहरी चुप्पी
किस्से उद्बोधन घायल-घायल।
बस हाथ मिले, बस हाथ हिले
मन के अभिवादन घायल-घायल।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....7.
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नागफनी की तुलना में अब बरगद बौने यार
इस युग के लगता सबके सब नारद बौने हैं।
हीनग्रन्थियाँ पूजी जातीं ये कैसा है दौर
आदमकद संज्ञाओं के सारे कद बौने हैं।
जिदें हथेली पर उग आयें सरसों के कुछ फूल
कामयाब क्या होंगे जिनके मकसद बौने हैं।
इनके सिर्फ सुनायी देते गर्जनमय संवाद
जल-प्रदान करने में अब तोयद बौने हैं।
असुरों की खातिर कविता कवि रचने को तैयार
आज कबीर मीरा तुलसी के पद बौने हैं।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....8.
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रोते-रोते रात कटी है
नयन भिगोते रात कटी, यह दुर्घटना रोज घटी।
हँसी डसी अधरों की ग़म ने
आहत होते रात कटी, यह दुर्घटना रोज घटी।
सुख बोना चाहा था हमने
दुःख को बोते रात कटी, यह दुर्घटना रोज घटी।
दिन-सी राधा बोल रही है
मोहन खोते रात कटी, यह दुर्घटना रोज घटी।
सुबह मिली मैली की मैली
चादर धोते रात कटी, यह दुर्घटना रोज घटी।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....9.
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एक बवन्डर धूल-भरा बादल का दे विश्वास
सावधान! अंगारा लोगो जल बन बैठा है
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आदर्शों के हीरे-मोती जिस घर की पहचान
चोर आचरण उस घर की साँकल बन बैठा है।
कल तक एक नर्तकी के घर की शोभा जो यार
आज वही पूजा का सुन चावल बन बैठा है|
कल तक जिसने मजहब के पर्दे में खाये लोग
वही भेडि़या ममता का आँचल बन बैठा है।
भटकेंगे अब लोग रौशनी के भ्रम-जालों बीच
उलझी हुई पहेलीका तम हल बन बन बैठा है।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....10.
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बात-बात में घाव भरे हैं
मुलाकात में घाव भरे, तू सोच अरे!
खुशियों की बीमार फसल है
पात-पात में घाव भरे, तू सोच अरे!
धनियाँ झुनियाँ या हो मरियम
गात-गात में घाव भरे, तू सोच अरे!
जिसे महँकना था फूलों-सा
उसी बात में घाव भरे, तू सोच अरे!
घूम कबीरा जग में आया
कायनात में घाव भरे, तू सोच अरे!
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....11.
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सत्ता को मत बदल बावरे, बदल सियासी रूप
मत दलदल में उछल बावरे, बदल व्यवस्था को।
आचरणों से एक रहे हैं गद्दी के सुल्तान
हाथी हो या कमल बावरे, बदल व्यवस्था को।
तेरे ही बल पर वे गर्दन जन की देते काट
वे इसमें अति कुशल बावरे, बदल व्यवस्था को।
तुझे न आता समझ पतीली और आग का खेल
मत सब्जी-सा उबल बावरे, बदल व्यवस्था को।
सिर्फ कुचलना और पीसना जानें सत्तासीन
वे हैं केवल खरल बावरे, बदल व्यवस्था को।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....12.
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बस्ती में जन-जन घायल हैं
फूलों जैसे मन घायल
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आज दहेज बिना निर्धन की
बिटिया का यौवन घायल |
जब से हुई व्यवस्था बाघिन
मन का रोज हिरन घायल।
सुख के बादल नहीं बरसते
सावन बने नयन घायल।
आज अभाव घाव देता है
बिन खुशबू चन्दन घायल।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....13.
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रति के अंधे तहखानों को बोल रहे आकाश
‘घनानंद’ बन लोग हर किसी को ‘सुजान’ कहते।
जो भी आया इनके ऊपर वही गया है थूक
स्वच्छ किन्तु अपने को फिर भी पीकदान कहते।
मार-मार कर झील ठहाके घण्टों हँसती यार
जल संचित करके मानेंगे जब ढलान कहते।
आज गुलेंले और आदमी गुमसुम-से लाचार
हमने की खेतों की रक्षा बस मचान कहते।
देखा कितने ही ‘द्रोणों’ का अब भी कुटिल विधान
‘एकलव्य’ के सम्मुख ‘अर्जुन’ को महान कहते।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....14.
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हर कोई आहत मिलता है
दर्दों में जड़वत मिलता, मन का फूल नहीं खिलता।
नवयुवकों के अहंकार में
एक महाभारत मिलता, मन का फूल नहीं खिलता।
कुंठा जलन घुटन सिसकन का
अब खुशियों को खत मिलता, मन का फूल नहीं खिलता।
अभिवादन को खड़ी तल्खियाँ
पीड़ा का स्वागत मिलता, मन का फूल नहीं खिलता।
अब तो स्वाभिमान का किस्सा
धन के आगे नत मिलता, मन का फूल नहीं खिलता।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....15.
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सुख के सारे कथानकों में दीखे दुःख के प्रेत
हर चहरे पर त्रासदियों के कुछ संकेत मिले।
बादल ने सौगाते दीं कुछ ऐसी धरती-बीच
गीली मिट्टी के बिम्बों में सूखे खेत मिले।
जिनके दावे थे- ‘हमसे नदियाँ है, सागर-खेत’
जाने कितने जलप्रपात अब मौन-अचेत मिले।
छल-प्रपंच की कालिख जिनके सोचों-बीच अपार
जाने किस मुँह से वे खुद को कहते श्वेत मिले।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....16.
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क्षोभ और संत्रास भरा है
जन-जन का इतिहास गुरू! मन है बड़ा उदास गुरू!
अमन-चैन की सुखद रौशनी
कहाँ हमारे पास गुरू! मन है बड़ा उदास गुरू!
सिर्फ अँधेरों के घेरों में
करें आज हम वास गुरू! मन है बड़ा उदास गुरू!
इन्सानों के खूँ की सब में
बढ़ती जाती प्यास गुरू! मन है बड़ा उदास गुरू!
दूर-दूर तक केवल पतझर
आज यही मधुमास गुरू! मन है बड़ा उदास गुरू!
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....17.
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जल को छोड़ बनी जब कीचड़ हर रिश्ते की झील
क्यों न हौसले बढ़ें आज बगुलों के-चीलों के।
एवरेस्ट जैसी ऊँचाई का भरते हैं दम्भ
बड़बोलेपन देखे हमने बौने टीलों के।
ये कैसी मजबूरी घायल होकर भी अब यार
दीवारें गुणगान कर रही चोबों-कीलों के।
गात-गात पर लोग उलीचें अलगावों का अम्ल
वहाँ लगेंगे कैसे अच्छे उत्सव खीलों के।
कविताओं के कवच ओढ़कर खटमल भरें उछाल
बेहद खुश है वंश आजकल जोंक-कलीलों के।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....18.
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पाँवों में जंजीर करें क्या
चुभें वक्ष में तीर यहाँ, मन है बड़ा अधीर यहाँ।
अपने हिस्से छल के किस्से
दुःख की है जागीर यहाँ, मन है बड़ा अधीर यहाँ।
बस्ती-बस्ती में द्रौपदि का
खिंचे आज भी चीर यहाँ, मन है बड़ा अधीर यहाँ।
नित कोठों पर नाच रही है
अब राँझे की हीर यहाँ, मन है बड़ा अधीर यहाँ।
खण्ड-खण्ड हर एक आस्था
बढ़ती जाती पीर यहाँ, मन है बड़ा अधीर यहाँ।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....19.
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उनकी चर्चाएँ रसवन्ती ऐसी होतीं यार
हर मन में केवल भय के अनुभाव उभरते हैं।
पहली बार हाथ में अपने कैंची रहे सम्हाल
देखें वे दुःख के या सुख के पंख कतरते हैं।
चिडि़याओं का पता बता देती हैं लगता शाख
जिन शाखों पर रोज रात को बाज उतरते हैं।
वे मृगतृष्णा में भटकाते रहते बारम्बार
जो खुशबू की तरह जहन में आज बिखरते हैं
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पल-पल हल बेकल करते वे जो जीवन-आधार
उलझी हुई पहेली ले सब जीते-मरते हैं।
+रमेशराज
रमेशराज की तेवरी....20.
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सत्य-धर्म का ज्ञान आजकल
हिंसा की पहचान यहाँ, आज मिलें हैवान यहाँ।
नैतिकता के बदल गये सब
मान ध्यान प्रतिमान यहाँ, आज मिलें हैवान यहाँ।
लगा रहे जो सिर्फ अँगूठे
बने हुए विद्वान यहाँ, आज मिलें हैवान यहाँ।
हम केवल नफरत ही सीखें
पढ़कर वेद-कुरान यहाँ, आज मिलें हैवान यहाँ।
लील गया फिरकों का जज्बा
अधरों के मृदुगान यहाँ, आज मिलें हैवान यहाँ।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001
मो.-9634551630
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