मेरी कृतियाँ

Saturday 27 February 2016

" ये जंगें लम्बी खिंचनी हैं ", रमेशराज की तेवरियाँ


ये जंगें लम्बी खिंचनी हैं ", रमेशराज की तेवरियाँ 
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|| रमेशराज की तेवरी ||
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आजकल दीवार-सा कुछ भी नहीं
अब हमारे बीच रंजिश-प्यार-सा कुछ भी नहीं।

कह रहा वो कर हवाले आग के
बर्फ के ऊपर रखा अंगार-सा कुछ भी नहीं।

हो नहीं सकती कभी घायल हवा
तू भले तलवार हैतलवार-सा कुछ भी नहीं।

बल्ब-सी तेरी दलीलें हैं भले
किन्तु तेरे पास विद्युत-तार-सा कुछ भी नहीं।

एक आशय लय-भरा परिचय-भरा
जब मिला इस बार तो उस बार-सा कुछ भी नहीं।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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बाहर-बाहर सब सच्चे हैं
भीतर-भीत खोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!

सारे नेता छल-विक्रेता
दें किसको हम वोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!

ओढ़ लिये दुःख ऐसे हमने
जैसे ओवरकोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!

लाले पड़े इधर रोटी के
वे चरते अखरोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!

चित भी उनकी-पट भी उनकी
ऐसी चलते गोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!

नहीं दाल सुख की गलती है
चाहे जितना घोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!

यहाँ न पुजता खरा रुपइया
पुजते खोटे नोट सखीमिलें चोट-दर-चोट सखी!



|| रमेशराज की तेवरी ||
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वो मुझे निश्चिन्त ऐसे कर गया
आँख में आँसूहृदय में प्यार से डर भर गया।

आजतक चर्चा न उन पै हो सकी
जिन तनावों को लिये मैं घर गया-बाहर गया।

तीर ने क्रन्दन किसी का कब सुना
चाकुओं के कान तक कब याचना का स्वर गया।

कान में शब्दों की मिसरी घोल दी
इस तरह अंधे नयन में नूर का अक्षर गया।

आँख जब भी फेर ली तर मेघ ने
हर नदी के तब बदन में रेत का मंजर गया।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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कैसा किसका स्वागत भाई
सब में तंग जहनियत रेअब आफत ही आफत रे।।

सुख-संदेश हमारे सारे
कोने फटे हुए ख़त रेअब आफत ही आफत रे।।

जहर सरीखा मन को करता
ऐसा मद का अमृत रेअब आफत ही आफत रे।।

पड़े स्वयं में छत होते हैं
लेकिन आज दिखे नत रेअब आफत ही आफत रे।।

ये जंगें लम्बी खिंचनी हैं
बाँधे रखना हिम्मत रेअब आफत ही आफत रे।।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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वो हमारी दोस्ती यूँ जी गया
जि़न्दगी-भर की सुधा को एक पल में पी गया।

मैं बताशे की तरह जीया नहीं
जल के मैं अस्तित्व में जल की तरह मिल ही गया।

मैं नदी की धारसागर का उफाँ
फर्क क्या पड़ना अगर में तेग से कट भी गया।

है यही अफसोस नक्कासी कहा
मखमली कालीन पर वो चीथड़े को सी गया।

गाँव की पहचान गायब हो गयी
एक भोला आचरण जब भी कभी दिल्ली गया।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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जितने वे शालीन साथियो!
उतने ही संगीन सुनोअब तो नया विकल्प चुनो।।

चिन्तन के घोड़ों पर कस लो
संकल्पों की जीन सुनोअब तो नया विकल्प चुनो।।

जख्मी करते हर पक्षी को
वे हैं करुणाहीन सुनोअब तो नया विकल्प चुनो।।

छल-प्रपंच के बल सारे खल
कुर्सी पर आसीन सुनोअब तो नया विकल्प चुनो।।

हम बनकर अर्जुन बींधेंगे
इस निजाम की मीन सुनोअब तो नया विकल्प चुनो।।



|| रमेशराज की तेवरी ||
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वो अहिंसा-भक्त आया पास में
खून पीने की तमन्ना बाँध अपनी प्यास में।

अधर पर उसके हँसी थी मित्रवत्
छोड़कर सब को गया जो दर्द के अनुप्रास में।

अब खुशी या रंज से हम क्यों भरें
फर्क जब कोई नहीं है भोग या उपवास में।

आज चिन्ता से भरे हम इसलिए
स्वाभिमानी आचरण बदला हुआ है दास में।

हर खुशी मुरझा गयीमन वेदना
महँक फूलों-सी मिलेगी क्या भला संत्रास में।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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आये दिन अब काले बहिना
भूख-गरीबी वाले रीपड़े दुःखों से पाले री!!

बात करे क्या अँधियारों की
डसते आज उजाले रीपड़े दुःखों से पाले री!!

सत्य बोलने पर हैं अब तो
हर जुबान पर ताले रीपड़े दुःखों से पाले री!!

हर शासन ने जन की गर्दन
केवल फंदे डाले रीपड़े दुःखों से पाले री!!

कर तू चोट इस तरह बहिना
ये सिंहासन हाले रीपड़े दुःखों से पाले री!!


|| रमेशराज की तेवरी ||
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हर किसी भूचाल में जि़न्दा रहे
प्यार खुशबू की तरह हर हाल में जि़न्दा रहे।

मगरमच्छों से लड़ेगी एक दिन
एक मछली ही सही पर ताल में जि़न्दा रहे।

जो खुशी है टिटिमाते दीप-सी
अब अगर ब्याही गयीससुराल में जि़न्दा रहे।

चाबुकों की मार के हम बीच हैं
अश्व जैसे पाँव अपने नाल में जि़न्दा रहे।

मेघ बनकर इसलिए हम आ गये
फूल में रँग औ’ हरापन डाल में जि़न्दा रहे।



|| रमेशराज की तेवरी ||
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बड़े बुरे हालात सखी री!
रहबर करते घात सखीकटे न दुःख की रात सखी!!

आज वतन की रक्षा करने
डाकू हैं तैनात सखीकटे न दुःख की रात सखी!!

सत्ता की साजिश के चाकू
गोद रहे हर गात सखीकटे न दुःख की रात सखी!!

आज देश में बे-ईमानी
है नरसी का भात सखीकटे न दुःख की रात सखी!!

ये वसंतकैसा वसंत है?
सूखे टहनी-पात सखीकटे न दुःख की रात सखी!!



|| रमेशराज की तेवरी ||
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अश्रु के आभास ने अपना पता
और मन को दे दिया संत्रास ने अपना पता।

सादगीइस प्यार को हम क्या कहें!
खुर्पियों को लिख दिया है घास ने अपना पता।

मरुथलों में आजतक भटके न जो
उन मृगों को अब बताया प्यास ने अपना पता।

फूल-तितली अब न इसके पास हैं
यूँ कभी बदला न था मधुमास ने अपना पता।

बात ऐसी! चौंकना मुझको पड़ा
चीख़ के घर का लिखा उल्लास ने अपना पता।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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पहले से ही कठिन राह थी
और हुई मुश्किल अब रेक्रान्ति रचेगा तू कब रे!!

इतनी बेचैनी मन-भीतर
मन जाता छिल-छिल अब रेक्रान्ति रचेगा तू कब रे!

बनकर मोम रोशनी देता
गलकर मन तिल-तिल अब रेक्रान्ति रचेगा तू कब रे!

बूँद-बूँद को तरस रहे  हैं
नदियों के साहिल अब रेक्रान्ति रचेगा तू कब रे!

पत्थर धड़क रहे सीनों में
भावुक रहे न दिल अब रेक्रान्ति रचेगा तू कब रे!


|| रमेशराज की तेवरी ||
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अधर से मुस्कान पल-भर में गयी
जि़न्दगी तुझसे रही पहचान पल-भर में गयी।

आस्था-उम्मीद की-विश्वास की
एक नन्हीं जान थी वो जान पल-भर में गयी।

तम को आकर चीरता था दीप जो
घुप अँधेरे  में उसी की आन पल-भर में गयी।

स्वर्ण जैसे आचरण का क्या करें
अब कसौटी पर रखा तो शान पल-भर में गयी।

छा गये जब से विदेशी मेघ कुछ
इस सदी की-हर नदी की तान पल-भर में गयी।


|| रमेशराज की तेवरी ||

तक्षक तभी खौफ में होंगे
पैदा हो जनमेजय रेकरना खत्म हमें भय रे।।

ढूँढ रहे हैं हम चिंगारी
कुछ तो अपना आशय रेकरना खत्म हमें भय रे।।

आदमखोर बना डालेगा
आचरणों का ये क्षय रेकरना खत्म हमें भय रे।।

और-और तू और देखना
व्यभिचारों का विनिमय रेकरना खत्म हमें भय रे।।

ज्वालामुखियों को फटना है
आज नहीं तो कल तय रेकरना खत्म हमें भय रे।।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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रंग सब निस्सार बनकर रह गये
फूल सारे पेड़ के अब खार बनकर रह गये।

प्यार उनसे ही जताते हम रहे
जो हमारे बीच बस दीवार बनकर रह गये।

जो रहे हैं दीप-से जलते कभी
घुप अँधेरे  में सभी बेजार बनकर रह गये।

बात अमृत-सी समय ने छीन ली
शब्द सारे अम्ल या फिर क्षार बनकर रह गये।

कौन देगा जि़न्दगी को सांत्वना
आँख के आँसू सभी अंगार बनकर रह गये।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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कितनी बीतीं सदियाँ प्यारे
कटीं नहीं हथकडि़याँ रेबीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!

उनके पेटों की खातिर हम
कब तक बनें सब्जियाँ रेबीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!

शब्दों के भीतर कुछ जलती
रखी न गयीं तीलियाँ रेबीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!

हम अब खाते कब रोटी
खातीं हमें रोटियाँ रेबीतीं यूँही सदियाँ रे!!

सर से पाँवों पर आनी थीं
खल की सबल टोपियाँ रेबीतीं यूँ ही सदियाँ रे!!


|| रमेशराज की तेवरी ||
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खोलनी थीं सुख के घर की साँकलें
खोल आये आप जाने कब किधर की साँकलें।

मित्रवरखामोशियों को तोड़ते
टूट जाती फिर  सभी ये ठोस डर की साँकलें।

गाँव जकड़ेंगे न जाने अब किसे
गाँव को जकड़े हुए हैं अब शहर की साँकलें।

क्या मिलेंगी रोशनी की मंजिलें
आपके जब साथ हैं अंधे सफर की साँकलें।

तैरने की अब कला तुम सीख लो
तब कहीं बेकार होंगी ये भँवर की साँकलें।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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गाल बजा मत खाली प्यारे
ला आँखों में लाली रेजीवन जैसे गाली रे!!

सिर्फ फायलों में आयी है
अब तक हर खुशहाली रेजीवन जैसे गाली रे!!

इन्कलाब का मतलब है अब
उगले आग दुनाली रेजीवन जैसे गाली रे!!

अपने हिस्से में आयी बस
अब तक विष की प्याली रेजीवन जैसे गाली रे!!

खायी रोटी रख हाथों पर
कहाँ मिली है थाली रेजीवन जैसे गाली रे!!

आज सियासी बातों पर तू
पीट न ऐसे ताली रेजीवन जैसे गाली रे!!

सूरज से दीपक अच्छा है
सुबह जहाँ हो काली रेजीवन जैसे गाली रे!!


|| रमेशराज की तेवरी ||
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अश्रु-भीगे त्रास को जि़न्दा रखा
इस तरह से आग के इतिहास को जि़न्दा रखा।

कल मिले जल-बूँद मोती की तरह
इसलिए ही सीपियों-सी आस को जि़न्दा रखा।

सुख-भरी लोकोक्ति-सा हर दुःख बने
इसलिए हर दर्द के अनुप्रास को जि़न्दा रखा।

आज माना मैं उलझ तम में गया
धूप ने कब धूप के आभास को जिन्दा रखा?

क्या सुनानी बदगुमानी की कथा
सहज मन से हम मिलेउल्लास को जिन्दा रखा।


|| रमेशराज की तेवरी ||
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आहत अबलाएँ बँगले में
ये चर्चाएँ बँगले मेंकरुण-कथाएँ बँगले में।

इज्जत वाले नारी का तन
हर दिन खाएँ बँगले मेंकरुण-कथाएँ बँगले में।

भूख बेबसी निर्धनता की
हैं कविताएँ बँगले मेंकरुण-कथाएँ बँगले में|

बेच रही हैं स्वाभिमान को
अब कन्याएँ बँगले मेंकरुण-कथाएँ बँगले में।

बाहर-बाहर दिखे रौशनी
तम मुस्काएँ बँगले मेंकरुण-कथाएँ बँगले में।
...................................................................
+रमेशराज,15 / 109 ,  ईसानगर, अलीगढ 
मो.9634551630  




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