मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी
*********
बना रह कुछ दिन और महान
टिकेगा ज्यादा नहीं गुमान |
भले तू रावण जैसा वीर
तुझे भी घेरेगा तूफ़ान ||
हमारा अगर सही अनुमान
तुझे भी होना है हैरान |
न जादू चलना आगे और
खत्म होना तेरा गुणगान ||
किसी से छीने खेत-मकान
किसी के जला दिए खलिहान |
छुपायेगा कब तक ये रूप ?
कि जनता रही तुझे पहचान ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
बना रह कुछ दिन और महान
टिकेगा ज्यादा नहीं गुमान |
भले तू रावण जैसा वीर
तुझे भी घेरेगा तूफ़ान ||
हमारा अगर सही अनुमान
तुझे भी होना है हैरान |
न जादू चलना आगे और
खत्म होना तेरा गुणगान ||
किसी से छीने खेत-मकान
किसी के जला दिए खलिहान |
छुपायेगा कब तक ये रूप ?
कि जनता रही तुझे पहचान ||
+रमेशराज
1.
जनता पर वार उसी के हैं
चैनल-अख़बार उसी के हैं |
इसलिए उधर ही रंगत है
सारे त्योहार उसी के हैं |
सब अत्याचार उसी के हैं
अब थानेदार उसी के हैं |
हम सिसक रहे जिस बोझ तले
सारे अधिभार उसी के हैं |
कोड़े तैयार उसी के हैं
बिजली के तार उसी के हैं |
तू बचा सके तो बचा बदन
फैंके अंगार उसी के हैं |
+रमेशराज
मुक्तक-विन्यास में एक तेवरी
**********
मैं तो हूँ पावन बोल रहा
अब पापी का मन बोल रहा |
नित नारी को सम्मान मिले
हँसकर दुर्योधन बोल रहा |
सूखा को सावन बोल रहा
अंधों का चिन्तन बोल रहा |
अफ़सोस यही है सत्ता की
भाषा में जन-जन बोल रहा |
पायल-सँग कंगन बोल रहा
रति का सम्बोधन बोल रहा |
बारूदी गंधें मत बांटो
सांसों का चन्दन बोल रहा |
+रमेशराज
*मुक्तक विन्यास में तेवरी*
**********
फूल मालाएँ चढ़ाए जा रहे हैं
ढोल-ढोलक हम बजाए जा रहे हैं।
एक कोने में धकेले राम-लक्ष्मण
रावणों के गीत गाए जा रहे हैं।।
हाथ में पत्थर उठाए जा रहे हैं
क्रोध की मुद्रा बनाए जा रहे हैं।
हम नहीं हैं आदमी, बस भीड़ हैं हम
देश को पल-पल रुलाए जा रहे हैं।।
आग नफ़रत की लगाए जा रहे हैं
बस्तियां सच की जलाए जा रहे हैं।
मुल्क के बलवान की अब ढाल बनकर
हर निबल को हम झुकाए जा रहे हैं।।
*रमेशराज*
*मुक्तक विन्यास में तेवरी*
************
कविता में कवि-कौशल देख
राजनीति का दंगल देख।
नया रूप धारे है सत्य
शब्दों में छल ही छल देख।।
टाट बनाया मखमल देख
सोना है अब पीतल देख।
नाम इसी का प्यारे जीत
संख्याओं का टोटल देख।।
मल जैसे हैं निर्मल देख
तरह-तरह के पागल देख।
जो कहते थे बुरी शराब
हाथ लिए हैं बोतल देख।।
*रमेशराज*
*मुक्तक विन्यास में एक तेवरी*
************
धर्म के ये स्वर नये
और फुँकने घर नये।
आजकल उन्माद के
उग रहे हैं पर नये।।
देख बाजीगर नये
दैत्य दूषण खर नये।
कर रहे हैं विषवमन
आज के शंकर नये।।
आज ये मंजर नये
बढ़ रहे हैं डर नये।
क्रूर कामी लालची
बन गये रहबर नये।।
*रमेशराज*
मुक्तक-विन्यास में एक तेवरी
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पीयें ठर्रा-रम बम भोले
हम सबसे उत्तम बम भोले |
जनता से नाता तोड़ लिखें
सत्ता के कॉलम बम भोले |
हम पै कट्टे-बम बम भोले
हम यम के भी यम बम भोले |
बस्ती को क्रन्दन देने को
हम आतुर हरदम बम भोले |
हमसे पेचो-खम बम भोले
आँधी के मौसम बम भोले |
अपना ही नाम ‘ अंधेरा ’ है
हमसे ज़िन्दा ग़म बम भोले |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
बांहों के हार शांतरस में
आया शृंगार शांतरस में |
पकवान समझकर नारी को
टपके है लार शांतरस में |
रस का व्यापार शांतरस में
धन का भण्डार शांतरस में |
इत श्याम-श्याम राधे-राधे
उत चीख-पुकार शांतरस में |
नित क्रोध अपार शांतरस में
मारक हथियार शांतरस में |
कैसा है ये वैराग्य अजब
सत्ता-विस्तार शांतरस में |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में raमेस्राज की एक तेवरी ||
बस्ती में आग लगा देगा
शोलों को और हवा देगा,
वो धर्म-धर्म चिल्लाता है
इंसां का खून बहा देगा ||
उलझन को और बढ़ा देगा
सच को झट झूठ बना देगा,
उसकी हर बात सियासी है
वो सबको सिर्फ दगा देगा |
मुजरिम को नहीं सज़ा देगा
जनता का काट गला देगा,
उसको भाता है क़ातिल ही
वो मंत्री उसे बना देगा |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
गर्दिशें ज़ारी हैं हर ठौर
करेगा प्यारे कब तू गौर |
नायकों को नेपथ्य ढकेल
हो गये खलनायक सिरमौर ||
न दीखेगा पेड़ों पर बौर
अभी अच्छे दिन आने और |
तुझे रहना है ख़ाली ज़ेब
छिनेगा हाथों से भी कौर ||
नया जो दीख रहा है दौर
न इसके भीतर कुछ भी सौर |
चला तू सड़े-गले से काम
बंटेगा राशन सिर्फ भिजौर ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
अधर पर मुस्कानों के हार
चतुर हैं हत्यारे इस बार |
निवेदन दुष्ट करें करबद्ध-
“ न काटेगी गर्दन तलवार “||
अधर पर मधुमुस्कान संवार
फूल-सा लेकर लोकाचार |
थामकर हाथों में पिस्तौल
बने सब गांधी के अवतार |
धूप जैसा दिखता अंधियार
फूल-सा बना आजकल खार |
सभी में छल की है रणनीति
लुटेगा खुशियों का संसार |
+रमेशराज
|| **मुक्तक विन्यास** में **रमेशराज** की एक **तेवरी** ||
अब तम घनघोर दिखायी दे
बस आदमखोर दिखायी दे |
ये कैसा रूप सियासत का ?
हर कोई चोर दिखायी दे ||
अब तम घनघोर दिखायी दे
मानव भी ढोर दिखायी दे |
बन बैठे नेता बाज़-गिद्ध
कोई तो मोर दिखायी दे ||
किरणों की डोर दिखायी दे
अब आता भोर दिखायी दे |
मातम ही मातम क्यों पसरा ?
खुशियों का छोर दिखायी दे ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
आजकल मौसम है प्रतिकूल
डाल पर एक नहीं है फूल |
दीखता घना तिमिर हर ओर
व्यवस्था बदल गयी आमूल ||
उड़े अब सिर्फ धूल ही धूल
खड़े हैं चारों ओर बबूल |
कहाँ से लायें पुष्प-सुगंध
हमारे हिस्से आये शूल ||
हिलीं जीवन की सारी चूल
हवाई निकला हर स्थूल |
ज़िन्दगी-भर का दुष्परिणाम
करी थी बस थोड़ी-सी भूल ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
संयत रख अपना मन छोरे
माना तुझ पे यौवन छोरे,
तेरे सब पंख झुलसने हैं
मत सम्पाती तू बन छोरे |
अब बीत गया बचपन छोरे
तू बदल कल्प चिन्तन छोरे,
माँ को मत लाइन बीच लगा
तू लेकर आ राशन छोरे |
है भला नहीं क्रन्दन छोरे
तू दयावान कुछ बन छोरे,
कुछ जिधर कबूतर बैठे हैं
क्यों तान रहा तू ‘गन’ छोरे |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की एक तेवरी ||
बस्ती में आग लगा देगा
शोलों को और हवा देगा,
वो धर्म-धर्म चिल्लाता है
इंसां का खून बहा देगा ||
उलझन को और बढ़ा देगा
सच को झट झूठ बना देगा,
उसकी हर बात सियासी है
वो सबको सिर्फ दगा देगा |
मुजरिम को नहीं सज़ा देगा
जनता का काट गला देगा,
उसको भाता है क़ातिल ही
वो मंत्री उसे बना देगा |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
रचे जा सदभावों के छंद
फूल बन, पैदा कर मकरंद |
दूर तक फैला प्यारे नूर
इसी में छुपा घोर आनन्द ||
नेक आचरणों वाली कंद
हमारी पहली बने पसंद |
सदाशय का जब आये नूर
न रखना तू दरवाजे बंद ||
क्रान्ति का जज़्बा रहे बुलंद
काटने तुझे सियासी फंद |
खलों का करना मित्र विरोध
सुमति-गति पड़े न भैया मंद ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
निबल को चारे जैसा काट
खड़ी सज्जन की कर दे खाट |
तुझे झुठलाना है हर सत्य
बना रह ऐसे ही तू भाट |
तुझे भाते सत्ता-सम्राट
दिखें बौने भी तुझे विराट |
मान आक़ा का हर आदेश
पैर के तलवे प्यारे चाट |
बोलते तुझे मौत का घाट
लगाये जा भोलों की वाट
विहँस जो पीस रही सदभाव
उसी चाकी का है तू पाट |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की एक तेवरी ||
उनको बादाम-मुनक्के हैं
इत भूख गरीबी धक्के हैं |
हम रोजगार को भटक रहे
उत इंतजाम सब पक्के हैं ||
दर्दों के नैन-मटक्के हैं
सुख गुमसुम हक्के-बक्के हैं |
जनता तो ज़ीरो पर आउट
महंगाई के अब छक्के हैं ||
उत मस्ती धूम-धड्क्के हैं
इत जमे खून के थक्के हैं |
वे चीख रहे हैं धर्म-धर्म
हम देख उन्हें भौचक्के हैं ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
बना रह कुछ दिन और महान
टिकेगा ज्यादा नहीं गुमान |
भले तू रावण जैसा वीर
तुझे भी घेरेगा तूफ़ान ||
हमारा अगर सही अनुमान
तुझे भी होना है हैरान |
न जादू चलना आगे और
खत्म होना तेरा गुणगान ||
किसी से छीने खेत-मकान
किसी के जला दिए खलिहान |
छुपायेगा कब तक ये रूप ?
कि जनता रही तुझे पहचान ||
+रमेशराज
|| **मुक्तक विन्यास** में **रमेशराज** की एक **तेवरी** ||
इतना हर ओर दिखायी दे
बस आदमखोर दिखायी दे |
ये कैसा रूप सियासत का ?
हर कोई चोर दिखायी दे ||
अब तम घनघोर दिखायी दे
मानव भी ढोर दिखायी दे |
बन बैठे नेता बाज़-गिद्ध
कोई तो मोर दिखायी दे ||
किरणों की डोर दिखायी दे
अब आता भोर दिखायी दे |
मातम ही मातम क्यों पसरा ?
खुशियों का छोर दिखायी दे ||
+रमेशराज
|| रमेशराज की मुक्तक विन्यास में एक तेवरी ||
कोई घर-भीतर काँप रहा
तो कोई बाहर काँप रहा |
सब ओर सियासी असुर खड़े
हर इन्सां थर-थर काँप रहा ||
होकर चश्मे-तर काँप रहा
अब पूरा मंजर काँप रहा |
हिंसा का ऐसा दौर नया
खुशियों का हर घर काँप रहा ||
अब कविता का स्वर काँप रहा
सच का हर अक्षर काँप रहा |
दुर्योधन का दुस्साहस लखि
कवि बना युधिष्ठिर काँप रहा ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
गर्दिशें ज़ारी हैं हर ठौर
करेगा प्यारे कब तू गौर |
नायकों को नेपथ्य ढकेल
हो गये खलनायक सिरमौर ||
न दीखेगा पेड़ों पर बौर
अभी अच्छे दिन आने और |
तुझे रहना है ख़ाली ज़ेब
छिनेगा हाथों से भी कौर ||
नया जो दीख रहा है दौर
न इसके भीतर कुछ भी सौर |
चला तू सड़े-गले से काम
बंटेगा राशन सिर्फ भिजौर ||
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
संयत रख अपना मन छोरे
माना तुझ पे यौवन छोरे,
तेरे सब पंख झुलसने हैं
मत सम्पाती तू बन छोरे |
अब बीत गया बचपन छोरे
तू बदल कल्प चिन्तन छोरे,
माँ को मत लाइन बीच लगा
तू लेकर आ राशन छोरे |
है भला नहीं क्रन्दन छोरे
तू दयावान कुछ बन छोरे,
कुछ जिधर कबूतर बैठे हैं
क्यों तान रहा तू ‘गन’ छोरे |
+रमेशराज
|| मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी ||
आजकल मौसम है प्रतिकूल
डाल पर एक नहीं है फूल |
दीखता घना तिमिर हर ओर
व्यवस्था बदल गयी आमूल ||
उड़े अब सिर्फ धूल ही धूल
खड़े हैं चारों ओर बबूल |
कहाँ से लायें पुष्प-सुगंध
हमारे हिस्से आये शूल ||
हिलीं जीवन की सारी चूल
हवाई निकला हर स्थूल |
ज़िन्दगी-भर का दुष्परिणाम
करी थी बस थोड़ी-सी भूल ||
+रमेशराज
मुक्तक विन्यास में रमेशराज की तेवरी
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उसे बस लाना ये बदलाव
करेगा चौड़े सबके घाव |
जहाँ भी उसे दिखेगी बाढ़
नदी के तट में करे कटाव ||
सिर्फ हिंसा में उसका चाव
बात बेबात दिखाता ताव |
वहाँ फैके बारूदी गंध
जहाँ करते इन्सान मिलाव ||
दीखता जहाँ कहीं सदभाव
तुरत वो करवाता पथराव |
मान ले ऐसा वो मल्लाह
भंवर में छोड़ भागता नाव |
+रमेशराज
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